शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ९/१२*

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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ९/१२*
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हरि पन६ चाहै हे सखी ! चाहे चित्त विलास ।
बाँझ रही द्वै पूत जण, सु कहि जगजीवनदास ॥९॥
(६. पन=पुनः, भी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, हे आत्मरुपी सखी तू प्रभु सानिध्य चाहती है या संसारिक मन को विलसित करने वाले वैभव ? अगर इनमें व्यस्त रही तो तेरी उपस्थिति संसार में शून्य रहेगी तू बंध्या जैसी होगी अतः प्रयास कर ज्ञान व वैराग्य उत्पन्न कर ।
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जगजीवन कोरा कलस, रीता भरिये रांम ।
सीतल जल कर अंचवौ, धरि राखौ इहि धांम ॥१०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह देह अनछुए कलश की भांति पवित्र कर परमात्मा द्वारा दी गयी है । यह बिल्कुल खाली है इसे राम स्मरण से भरिये । फिर इसके आनंद रुपी शीतल जल का पान कर पायें ऐसा व्यवहार इस संसार में रखे ।
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ताता जल कोरै७ घड़ै८, आंगण मेल्या रात ।
सखी तिसाई९ ही चली, जगजीवन ए जात ॥११॥
(७. कोरै=नया) (८. घड़ै=घट) (९. तिसाई=प्यासी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस देह रुपी कलश में क्रोध रुपी उष्ण जन जल भरकर इस संसार में उसे विचरणार्थ छोड़ दे तो वह तृषित ही रहेगा । इस संसार मे उसकी ज्ञान की प्यास कभी नहीं बुझेगी क्योंकि ज्ञान तो नम्रता से मिलता है ।
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चाखूं तो खारा खरा, क्यूं घरि आंणै बीर ।
जगजीवन कहि रांमजी, फेरि भरावौ नीर ॥१२॥
संतजगजीवन जी कहते है कि यह संसार कटुता पूर्ण है प्रभु आप क्यों बार बार इसमें जीव को भेजते हो । आप बार घुमा घुमा कर इसमें ही श्रम करवाते हो कृपया मोक्ष भी दीजिये ।
(क्रमशः)

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