शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

*हितहरिवंशजी*

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*कुंज केलि तहं परम विलास,*
*सब संगी मिल खेलैं रास ॥*
*तहँ बिन बैना बाजैं तूर,*
*विकसै कँवल चंद अरु सूर ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*हितहरिवंशजी*
*छप्पय-*
*भक्ति सीर सकृत१ कोऊ, जानत हित हरिवंश की ॥*
*राखत चरण प्रधान, आप श्री राधा जी के ।*
*श्यामा श्याम विहार, कुंज मधि साधे नीके ॥*
*सेवत महा प्रसाद, सदा व्रत तप नहिं मानैं ।*
*विधि निषेध भ्रम सकल, छाड़ि उत्तम धर्म ठानें ॥*
*राघव व्यास विचित्र सुत, करनी पालत हंस की ।*
*भक्ति सीर सकृत कोऊ, जानत हित हरिवंश की ॥२८७॥*
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हरि हरि वंश की सदैव१ चलने वाली भक्ति की धारा को कोई विरला ही जान पाता है । आप राधाजी के चरणों को ही प्रधान मानकर उनको ध्यान द्वारा अपने हृदय में रखे थे और उन की उपासना करते थे । श्रीराधाकृष्णजी के कुंजविहार में प्रीति रखकर अच्छी प्रकार साधन करते थे ।
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सदा महाप्रसाद का सेवन करते थे । एकादशीव्रत रूप तप को ही महाप्रसाद के समान नहीं मानते थे अर्थात् एकादशी के दिन को भी अन्न का प्रसाद पाते थे । विहित निषेध रूप सम्पूर्ण भ्रम को त्याग कर भगवत् उपासना रूप उत्तम धर्म का ही अनुष्ठान करते थे ।
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राघवदासजी कहते हैं- ये व्यासजी के पुत्र हितहरिवंशजी विलक्षण भक्त हुए हैं । आप परमहंसों के समान ही कर्तव्यों का पालन करते थे । आपके एक शिष्य का नाम भी व्यास है जिनकी कथा आगे आ रही है ॥२८७॥
(क्रमशः)

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