शुक्रवार, 31 मई 2024

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*दादू मन भुजंग यहु विष भर्‍या,*
*निर्विष क्योंही न होइ ।*
*दादू मिल्या गुरु गारुड़ी, निर्विष कीया सोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जो मुझे प्रेम करते हैं, उनकी संख्या भी बड़ी है; और जो मुझे घृणा करते हैं, उनकी संख्या तो बहुत बड़ी है। और मैं दोनों के प्रति आभारी हूं। क्योंकि जो प्रेम करते हैं,वे तो मेरे रस में डूबेंगे ही डूबेंगे..! जो घृणा करते हैं, वे आज नहीं कल, कल नहीं परसों,राह से किताब को उठा कर पढ़ेंगे। उनके भी बचने का उपाय नहीं है।
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उन्होंने घृणा करके ही अपने आप मेरे साथ संबंध जोड़ लिया। यूं नाराज़गी में जोड़ा है, मगर संबंध तो संबंध है। मैं तुम्हारी मनःस्थिति समझ सकता हूं, तुम्हारा प्रेम समझ सकता हूं। लेकिन तुम्हें भरोसा दिलाना चाहता हूं कि तुम्हारे प्रेम के सहारे ही जिंदा हूं, अन्यथा अब मेरे लिए कोई जीने का कारण नहीं है।
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अब तुम्हारी आंखों में चमकती हुई ज्योति को देख लेता हूं, तो सोचता हूं कि और थोड़ी देर सही, शायद कुछ और लोग मधुशाला में प्रवेश कर जाएं। शायद कुछ और लोगों को इस रस के पीने की याद आ जाए। तुम मेरे शरीर की चिंता न करो। शरीर की चिंता अस्तित्व करेगा। 
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तुम तो सिर्फ इस बात की चिंता करो कि जब तक मैं हूं, तब तक तुम पियक्कड़ों की इस जमात को कितनी बड़ी कर सकते हो, कर लो। यह जमात जितनी बड़ी हो जाए, मैं उतनी देर तुम्हारे बीच रुकने का तुम्हें आश्वासन देता हूं..!
ओशो..! कोंपलें फिर फूट आई।

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