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*ज्यों आपै देखै आपको, यों जे दूसर होइ ।*
*तो दादू दूसर नहीं, दुःख न पावै कोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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कुछ युवा एक रात्रि एक वेश्या को साथ लेकर सागर तट पर आये। उस वेश्या के वस्त्र छीनकर उसे नंगा कर दिया और शराब पीकर वे नाचने-गाने लगे। उन्हें शराब के नशे में डूबा देखकर वह वेश्या भाग निकली। रात जब उन युवकों को होश आया, तो वे उसे खोजने निकले। वेश्या तो उन्हें नहीं मिली, लेकिन एक झाड़ी के नीचे बुद्ध बैठे हुए उन्हें मिले। वे उनसे पूछने लगे ‘‘महाशय, यहां से एक नंगी स्त्री को, एक वेश्या को भागते तो नहीं देखा ? रास्ता तो यही है। यहीं से ही गुजरी होगी। आप यहां कब से बैठे हुए हैं ?”
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बुद्ध ने कहा, ‘‘यहां से कोई गुजरा जरूर है, लेकिन वह स्त्री थी या पुरुष, यह मुझे पता नहीं है। जब मेरे भीतर का पुरुष जागा हुआ था, तब मुझे स्त्री दिखायी पड़ती थी। न भी देखूं तो भी दिखायी पड़ती थी। बचना भी चाहूं तो भी दिखायी पड़ती थी। आंखें किसी भी जगह और कहीं भी कर लूं तो भी ये आंखें स्त्री को ही देखती थीं। लेकिन जब से मेरे भीतर का पुरुष विदा हो गया है, तबसे बहुत खयाल करूं तो ही पता चलता है कि कौन स्त्री है, कौन पुरुष है। वह कौन था, जो यहां से गुजरा है, यह कहना मुश्किल है।
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तुम पहले क्यों नहीं आये ? पहले कह गये होते कि यहां से कोई निकले तो ध्यान रखना, तो मैं ध्यान रख सकता था। और यह बताना तो और भी मुश्किल है कि जो निकला है, वह नंगा था या वस्त्र पहने हुए था। क्योंकि, जब तक अपने नंगेपन को छिपाने की इच्छा थी, तब तक दूसरे के नंगेपन को देखने की भी बड़ी इच्छा थी। लेकिन, अब कुछ देखने की इच्छा नहीं रह गयी है। इसलिए, खयाल में नहीं आता कि कौन क्या पहने हुए है….।”
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दूसरे में हमें वही दिखायी देता है, जो हममें होता है। दूसरे में हमें वही दिखायी देता है, जो हममें है। और दूसरा आदमी एक दर्पण की तरह काम करता है, उसमें हम ही दिखायी पड़ते हैं। बुद्ध कहने लगे, ”अब तो मुझे याद नहीं आता, क्योंकि किसी को नंगा देखने की कोई कामना नहीं है। मुझे पता नहीं कि वह कपड़े पहने थी या नहीं पहने थी।” वे युवक कहने लगे, ‘‘हम उसे लाये थे अपने आनंद के लिए। लेकिन, वह अचानक भाग गयी है। हम उसे खोज रहे हैं।”
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बुद्ध ने कहा, ‘‘तुम जाओ और उसे खोजो। भगवान करे, किसी दिन तुम्हें यह खयाल आ जाये, कि इतनी खूबसूरत और शांत रात में अगर तुम किसी और को न खोज कर अपने को खोजते, तो तुम्हें वास्तविक आनंद का पता चलता। लेकिन, तुम जाओ और खोजो दूसरों को। मैंने भी बहुत दिन तक दूसरों को खोजा, लेकिन दूसरों को खोजकर मैंने कुछ भी नहीं पाया। और जब से अपने को खोजा, तब से वह सब पा लिया है, जिसे पाकर कोई भी कामना पाने की शेष नहीं रहती।
आचार्य रजनीश ओशो~संभोग से समाधि की ओर–49
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