शनिवार, 22 जून 2024

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*दादू घट कस्तूँरी मृग के, भ्रमत फिरै उदास ।*
*अन्तरगति जाणै नहीं, तातैं सूंघै घास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग।
कबीर कहते हैं, कहीं और जाना नहीं है। तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग—बस करना इतना ही है कि तू जाग। साईं को नहीं खोजना है, जागना है। और भूल कर के कहीं साई को खोजने मत निकल जाना, बिना जागे; नहीं तो नींद में बहुत भटकोगे, पहुंचोगे कहीं नहीं। क्योंकि—तेरा साईं तुज्झ में। जाते कहां हो खोजने ? जितनी दूर निकल जाओगे खोजने उतनी ही उलझन में पड़ जाओगे। परमात्मा को खोजना नहीं है, बस जागना है।
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“तेरा साईं तुज्झ में, जागि सकै तो जाग।’
“कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूढ़ै वन माहिं।’
आती है गंध कस्तूरी की भीतर से। नाफा पक गया, कस्तूरी तैयार है। भागता है पागल होकर मृग, खोजता है, कहां से आती है यह गंध? उसकी नाभि में है कस्तूरी। पर मृग को कैसे पता चले ? मनुष्य को भी पता नहीं चलता कि गंध नाभि में है।
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तुम्हारे जीवन का स्रोत तुम्हारी नाभि है। तुम्हारे आनंद का स्रोत भी तुम्हारी नाभि है। तुम्हारे अस्तित्व का केंद्र तुम्हारी नाभि है। अगर तुम अपनी नाभि में उतर जाओ, तो तुमने परमात्मा का द्वार पा लिया। पश्चिम में लोग मजाक करते हैं। पूरब के योगियों को कहते हैं, वे लोग जो अपने नाभि में टकटकी लगाकर देखते रहते हैं। वहां क्या रखा है ? वहीं सब कुछ रखा है।
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तुम्हें शायद पता नहीं कि मां के गर्भ में तुम नाभि से ही मां से जुड़े थे। नाभि तुम्हारे जीवन का केंद्र है। वहीं से जीवन—ऊर्जा तुम्हारे जीवन में प्रवाहित हो रही थी। फिर तुम तैयार हो गए, मां की जीवन—ऊर्जा की जरूरत न रही, तो नाल काट दी गई। तुम मां के गर्भ से बाहर आ गए। लेकिन तुम्हारी नाभि से एक अदृश्य नाल अभी भी परमात्मा से जुड़ी है। एक रजतरेखा तुम्हें जोड़े हुए है अस्तित्व से।
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तुम नाभि से ही जुड़े हो। नाभि में ही तुम्हारी जड़ हैं। न केवल शरीर के अर्थों में तुम नाभि से जुड़े हो। आत्मा के अर्थों में भी तुम नाभि से ही जुड़े हो। जिन लोगों को कभी शरीर के बाहर जाने का अनुभव हुआ है—कई बार हो जाता है, कभी तो दुर्घटना में हो जाता है कि कोई आदमी ट्रेन से गिर पड़ा और उस झटके में उसकी आत्मा शरीर के बाहर निकल गई।
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जिन लोगों को भी ऐसा अनुभव हुआ है दुर्घटना में, या योग की साधना में, या जान—बूझकर जो प्रयोग कर रहे थे शरीर के बाहर जाने का, उन सभी को एक बात दिखाई पड़ी है, और वह यह कि उनकी आत्मा कितनी ही दूर चली जाए, एक रजत—रेखा नाभि से जुड़ी ही रहती है। अगर वह टूट जाए, फिर वापस शरीर में लौटने का उपाय नहीं रह जाता। वह कितनी ही ऊंचाई पर उड़ जाए, लेकिन वह रजत—रेखा बड़ी लोचपूर्ण है, वह खिंचती जाती है। वह कोई पदार्थ नहीं है; वह सिर्फ शुद्ध विद्युत—ऊर्जा है, इसलिए शुभ्र चांदी की भांति दिखाई पड़ता है।
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तुम्हारी नाभि में तुम्हारे जीवन का सारा राज छिपा है। इसलिए कबीर ने कस्तूरी कुंडल बसै यह प्रतीक चुना है। और घटना वही घट रही है जो मृग के साथ घटती है। मृग बिलकुल पागल हो जाता है, टकरा लेता है सिर को जगह—जगह, लहूलुहान हो जाता है। और इतनी मादक गंध आती है, रुक भी नहीं सकता; खोजना चाहता है, कहां से गंध आती है।
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जितना भागता है उतना ही व्याकुल होता है। और जितना भागता है उतनी ही जगह उसकी गंध व्याप्त हो जाती है। उतना ही और भी दिग्भ्रम पैदा होने लगता है कि कहां से आ रही है, कि पूरब से कि पश्चिम से कि दक्षिण से। क्या करे यह मृग? इस मृग को कैसे समझाएं कि तू बैठ जा, आंख बंद कर ले, भीतर उत्तर—तेरे भीतर ही गंध का राज छिपा है।
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तुम भी आनंद की तलाश में कहां—कहां नहीं घूम लिए हो। कितने जन्मों की लंबी यात्रा है। हिंदू कहते हैं, चौरासी करोड़ योनियों में तुम एक ही चीज को खोज रहे हो कि गंध कहां से आ रही है? आनंद कहां से मिलेगा ? जीवन का राज कहां छिपा है ? परमात्मा कहां है ? और कबीर कहते हैं, कस्तूरी कुंडल बसै। तेरा साईं तुज्झ में, जागिर सकै तो जाग।
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ऐसे घट—घट राम हैं—जैसे कस्तूरी कुंडल के भीतर छिपी है—
ऐसे घट—घट राम हैं, दुनिया देखै नाहिं।
अछै पुरुष इक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
तिरदेवा साखा भए, पात भया संसार ॥
कबीर कहते हैं कि वह जो अक्षय पुरुष है, वही इस सारे अस्तित्व का फैलाव है। यह सारा वृक्ष उसी का है। प्रतीक है कि अक्षय पुरुष जैसे एक अक्षय वट है: सारा फैलाव एक वृक्ष की भांति है; डार—डार उसी अक्षय पुरुष की निरंजनता फैली है।
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निरंजन का अर्थ होता है: परम वैराग्य। निरंजन का अर्थ होता है, जिसको कोई रंग, रंग नहीं पाता; जो सब रंगों में है, और अनरंगा रह जाता है। निरंजन का अर्थ होता है: कमलवत; है पानी में और पानी छू नहीं पाता। उस अक्षय पुरुष का यह फैलाव है अस्तित्व—वृक्ष की भांति वही निरंजन एक—एक डार में छिपा है। पात भया संसार—और ये जो पत्ते हैं, यही संसार है।
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कबीर यह कह रहे हैं कि परमात्मा और संसार में फासला नहीं है; ये एक ही चीज के दो ढंग हैं। स्रष्टा और सृष्टि दो नहीं हैं। और पात—पात में भी वही फैला है। तुम उसके ही पात हो। तुम्हारे पत्ते कितने ही अलग दिखाई पड़ रहे हों, तुम में भी वही फैला है। तुम उसके ही पात हो। तुम्हारे पत्ते कितने ही अलग दिखाई पड़ रहे हों, तुम इस भ्रांति में मत पड़ना कि तुम अलग हो। अलग तो तुम उससे जुड़े हो। प्रतिपल श्वांस ले रहे हो: श्वास काट दी जाए, एक द्वार टूट गया, एक सेतु मिट गया—कैसे जिओगे ?
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सूरज की किरणें चली आ रही हैं, तुम्हारे रोयें—रोयें को, जीवन को उत्ताप से भर रही हैं; सूरज ठंडा हो जाए, तुम कैसे जिओगे ? ये तो स्थूल बातें हैं। ऐसे ही सूक्ष्म तल से सब तरफ से परमात्मा तुम्हें सम्हाले हुए है जैसे वृक्ष को अदृश्य जड़ें सम्हाले होती हैं। और वृक्ष पत्ते—पत्ते की फिक्र कर रहा है। तो घबड़ाओ मत कि तुम पत्ते हो और संसार में हो—संसार भी उसी का है। सृष्टि और स्रष्टा दो नहीं हैं; सृष्टि, स्रष्टा का ही फैलाव है।
ओशो; सुनो भाई साधो--प्रवचन--20

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