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*दादू माटी के मुकाम का, सब कोइ जाणैं जाप ।*
*एक आध अरवाह का, बिरला आपै आप ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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‘राम-राम भज ले रे माटी के धोंदा।’
ठीक कहता है साधु। मिट्टी के पुतले हैं हम। मिट्टी में ही गिर जाएंगे। लेकिन हममें कुछ है जो मिट्टी का भी नहीं है। हममें कुछ है, जो मिट्टी का नहीं है। हममें कुछ है, जो पार से आता है।
‘राम-राम भज ले रे...।’
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हमारे भीतर भजन है जो मिट्टी का नहीं है। हमारे भीतर सुरति है जो मिट्टी की नहीं है। हमारे भीतर स्मरण है, बोध है, होश है, याद है--जो मिट्टी की नहीं है। मिट्टी तो मिट्टी में गिर जाएगी। अगर बिना परमात्मा को याद किए मर गए तो मिट्टी ही रहे और मिट्टी में ही गिर गए।
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तुम्हारे भीतर कुछ समाया है--आकाश भी। तुम पृथ्वी के ही नहीं बने हो, तुम्हारे भीतर थोड़ा सा आकाश भी समाया है। तुम्हारी इन मिट्टी की दीवालों में आकाश भी है। तुम्हारे आंगन में मिट्टी की दीवाल भी है और आकाश भी है। *राम-स्मरण का अर्थ होता है: मिट्टी पर से ध्यान हटाओ, आकाश का स्मरण करो।*
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आंगन ठीक प्रतीक है। देखते हैं, छोटा सा आंगन, चारों तरफ दीवालें उठा रखी हैं ! लेकिन आंगन दीवालों के बीच, वह जो आकाश है, वह तो वही आकाश है, जो बाहर फैला हुआ है। उसमें और भीतर के आंगन के आकाश में कोई फर्क नहीं है। छोटे से घड़े में भी जो आकाश बंद होता है, उसमें भी और बाहर के विराट आकाश में कोई फर्क नहीं। घड़ा टूटा कि आकाश आकाश से मिल जाता है।
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अब तुम्हारी दृष्टि की बात है। या तो मिट्टी पर दृष्टि बांध लो। अपने को देह मानो--देह और देह और देह। और यही तुम्हारी एकमात्र धारणा रह जाए, तो तुमने भीतर जो आकाश था वह तो देखा ही नहीं; मिट्टी की दीवाल को ही पकड़ कर रुक गए, मिट्टी ही रह गए।
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तो वह ठीक ही कहता है: फिर माटी के धोंदा ही रह जाओगे। फिर तुम गोबर-गणेश रह गए; तुम असली को न पहचान पाए। और असली मौजूद था। तुम नकली को पकड़ लिए नकली भी है असली भी है। सिर्फ ध्यान को बदलो। धीरे-धीरे देह से ध्यान को हटाओ और तुम्हारे भीतर जो चैतन्य है, उस पर ध्यान को लगाओ। उसी चैतन्य से जुड़ जाओ। उसी चैतन्य को अहर्निश भावो। उसी चैतन्य का भजन हो।
ओशो ~ अजहु चेत गंवार 14

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