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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग ११३/११६*
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हीं हरि नांम निवास हरि, ग गुण रांम निवास ।
लाज सकति आगै अकाल, सु कहि जगजीवन दास ॥११३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं की हरि नाम व राम नाम में ही सब गुण है । वह समय से परे शक्ति रुप है । ऐसा संत कहते हैं ।
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चोब्रा२ है एक अंबु, षरण उभै धरि नांम ।
कहि जगजीवन डाल मण, मुकति रिदै रस रांम ॥११४॥
(२. चौब्रा=चौबारा, जिस के चारों दिशाओं में चार दरवाजे हों)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन ही ऐसा चौबारा है जहाँ चारों और से जल कण बरसते हैं ये वैचारिक जलकण है । इस में मुक्ति के लिये राम रुपी आनंद रस डालिये ।
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अहि फण३ सहस, जुगल रसन३, रसानां भिंन भिंन४ नांम ।
कहि जगजीवन कँवल महिं, ब्रह्मा उतपति धांम ॥११५॥
(३-३. अहि फण सहस, जुगल रसन-‘पुराण’ शास्त्रों में ऐसी प्रसिद्धि है कि शेषनाग के हजार फण होते हैं तथा एक एक फण में दो जिह्वा होती हैं)
{४. भिंन भिंन=भिन्न भिन्न(पृथक् पृथक्)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आपके स्मरण के लिये मेरी वृत्ति शेषनाग के हजारों फणौं जिसमें भी प्रत्येक में दो जिह्वा हो जैसी प्रकृति बना दीजिये । जिससे मेरे भी ह्रदय रुपी कमल में ब्रह्म का प्राकट्य हो ।
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नौ खंड प्रिथमी५ चक्रित६ हरि, पंच तत्त्व टंकार ।
कहि जगजीवन ऊधरै, (सौ) सबद पिछांणै सार ॥११६॥
(५. प्रिथमी=पृथ्वी) (६. चक्रित=आश्चर्य चकित)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पाचं तत्व से निर्मित इस देह को देख नो खण्ड पृथ्वी भी चकित है कि जीव इतना विषयों में लिप्त है तो इसका उद्धार कैसे होगा । संत कहते हैं कि जो प्रभु स्मरण शब्द को जान ले वह ही पार पायेगा ।
(क्रमशः)

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