सोमवार, 24 जून 2024

*सागर सूर भई सलिता बुधि*

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*शब्दों मांहिं राम-रस, साधों भर दीया ।*
*आदि अंत सब संत मिलि, यों दादू पीया ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*इन्दव-*
*सागर सूर भई सलिता बुधि,*
*बोध निरोध१ लियो जिन पाणी ।*
*प्रेम से प्रेम बढ्यो उर अन्तर,*
*यूं उझली मुख है अति वाणी ॥*
*जैसे सुन्यो समयो तहँ तैसोइ,*
*सोय निबाह कियो जहँ जाणी ।*
*राघो कहै सरस्वती वर वारि ज्यूं,*
*यूं सब चोज२ शबद्द में आणी ॥२९६॥*
सूरदासजी का शरीर तो सागर है और इनकी बुद्धि ही नदी है । जैसे नदियाँ पर्वतादि से जल लेकर धारण१ करती हैं, वैसे ही इनकी बुद्धि ने शास्त्र संतों से ज्ञान लेकर धारण किया था ।
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फिर जैसे नदियों के जल से समुद्र का जल बढ़ता है, वैसे ही शास्त्र संतों के ज्ञान में स्थित प्रेम के द्वारा सूरदासजी के हृदय के भीतर का प्रेम बढ़ा । जैसे समुद्र बढ़ने से उसका जल नदियों में पीछा उमड़ता है, वैसे ही इनके हृदय से भी प्रेम अति मात्रा में उमड़ा और मुख द्वारा वाणी रूप में निकला ।
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इनने भगवान् श्रीकृष्ण की जिस अवस्था के समय का जैसा चरित्र भागवतादि से सुना और जहाँ जैसा अपने अनुभव से जाना, वैसा ही उसका अपनी रचना में निर्वाह किया है अर्थात् लिखा है ।
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राघवदासजी कहते हैं- हरि कृपा से इनके हृदय में उत्तम जल प्रवाह के समान सरस्वतीजी का अनुग्रह रूप प्रवाह चलता था । इससे ही इस प्रकार अपने शब्दों में ये सर्व प्रकार का चातुर्य२ ला सके थे ॥२९६॥
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*विशेष विवरण*- दिल्ली से थोड़ी दूर पर सीही ग्राम में एक निर्धन ब्राह्मण के वि० सं० १५३५ के वैशाख शुक्ला पंचमी को सूरदासजी का जन्म हुआ था । शिशु के नेत्र बन्द थे । अंधे बालक के प्रति पिता उदासीन थे । सूरदास कुछ बड़े हुए तब घर छोड़ कर ग्राम के बाहर एक पीपल वृक्ष के नीचे रहने लगे थे ।
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ये पहले शकुन बताया करते थे । इससे इनके पास भीड़ रहने लगी । अब आप अठारह वर्ष के हो गये थे । उक्त भीड़ को भजन में विघ्न जान कर वहाँ से मथुरा आ गये । रेणुका क्षेत्र(रुनकता) में रहे, यहाँ महात्माओं का सत्संग तो मिला किन्तु एकान्त नहीं था । इससे रुनकता से तीन मील दूर पश्चिम की ओर यमुना तट गऊघाट में आकर काव्य और संगीत का अभ्यास करने लगे ।
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वि० सं० १५६० में वल्लभाचार्य अडैल से व्रज आये तब गऊघाट पर ही आचार्य और आपका मिलन हुआ । मिल कर दोनों ही अति प्रसन्न हुये । तीन दिन गऊघाट पर रह कर आचार्य गोकुल आये । साथ ही सूरदास भी आये । फिर आचार्य के साथ ही गोवर्धन आ गये और सदा के लिये वहाँ ही रह गये ।
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चन्द्रसरोवर के निकट परासोली में आप रहते थे । वहाँ ही नन्ददास, कुम्भनदास, गोविन्ददास आदि से इनका परिचय हुआ । आपने "सूरसागर" जैसे विशाल ग्रन्थ की रचना की है । एक समय तानसेन ने अकबर को सूरदासजी का एक पद सुनाया था । उसे सुनकर बादशाह को सूरदासजी के दर्शन की इच्छा हुई । वे आवश्यक राज कार्य के लिये मथुरा आये थे ।
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वि० सं० १६२३ में तानसेन के साथ सूरदासजी से मिले और प्रसन्न हुये थे । सूरदासजी भगवान् का दर्शन करके जैसा श्रृंगार होता था वैसा ही वर्णन कर देते थे । एक दिन बिट्ठलनाथजी के पुत्र गिरधरजी ने गोकुलनाथजी के कहने से परीक्षा ली । भगवान् का अद्भुत श्रृंगार किया वस्त्र नहीं पहचाना, वस्त्रों के स्थान पर मोतियों की मालायें पहना दी । सूरदासजी ने अपने दिव्य नेत्रों से दर्शन करके वैसा ही वर्णन कर दिया । आप परासोली में ही गोलोकवासी हुए थे ॥
(क्रमशः)

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