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*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १०५/१०८*
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सा सतगुरु सुमिरण ह्रिदै, ध हरि धीरज रांम ।
कहि जगजीवन अलख निरंजन, तब लगि जन का नांम ॥१०५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि साधुजन सतगुरु महाराज का दिया ज्ञान धैर्यपूर्वक ह्रदय में रखकर वे उस निरंजन प्रभु का निरंतर स्मरण करते रहते हैं ।
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*ऊ* आया रब पठाया, खल्क मांहि षुरमेद ।
कहि जगजीवन *ग्यां८* गया, प्रगट्या उत्तिम उमेद९ ॥१०६॥
(८. ग्यां-ज्ञान) (९. उमेद=उम्मीद=आशा या इच्छा)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव प्रभु की आज्ञा से ही संसार में आया है । और श्रेष्ठ की आशा से ही जीव में ज्ञान आया है ।
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कहि जगजीवन रांम रस, प्रीतम पा मोहि प्यास ।
*घड़ी* घड़ी बेरियां घड़ी, सिर पर राखी तास ॥१०७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु जी राम नाम के स्मरण की मुझे निरंतर प्यास बनी रहे और आप वह आनंदरस का पान मुझे हर समय बार बार करवाते रहे यह ही कृपा मुझपर आपकी बनी रहे ।
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वा* सौं बचायो राखु मांहि, जे पहेली१ बोलै ।
कहि जगजीवन परबत है, पणि तिणका बोलै* ॥१०८॥
(१. पहेली=प्रहेलिका)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आप हमें उन गूढ कथन वाले विद्वानों से बचायें रखें जो अपने कथन पहेलियों में करतें है । जिनके तिनके जैसे कथन में भी पर्वत सदृश अर्थ होते हैं ।
(क्रमशः)

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