शुक्रवार, 14 जून 2024

*प्रेम को प्रवाह*

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*रात दिवस का रोवणां, पहर पलक का नांहि ।*
*रोवत रोवत मिल गया, दादू साहिब माँहि ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*मनहर-*
*प्रेम को प्रवाह गुणसागर गिरा को पुंज,*
*चोज१ को चतुर प्रमानन्द सु प्रवीन है ।*
*गावत गुनानुवाद गोविन्द गोपाल हरि,*
*राम नाम हिय धरि भयो लवलीन२ है ।*
*बीनती विकट३ नट नृत्य, करे रात दिन,*
*नाचत निराट४ दीनानाथ आगे दीन है ।*
*राघो कहै विरह विलाप से मिलाप कीन्हों,*
*विधना५ से वेध्यो प्राण जैसे जल मीन है ॥२९४॥*
परमानन्दजी प्रभु-प्रेम के तो मानो प्रवाह ही थे । शुभ गुणों के सागर थे । सुन्दर वाणी की राशि थे । चमत्कार पूर्ण उक्ति१ कथन करने में बड़े चतुर थे । भक्ति मार्ग में प्रवीण थे ।
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आप प्रभु के गुणानुवाद का गायन करते थे । गोविन्द गोपाल और हरि नाम गाते रहते थे । हृदय में राम नाम धारण करके तन्मय२ हुए रहते थे ।
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आप की विनय बडी विशाल३ होती थी । जैसे नट नृत्य करता है, वैसे ही एकमात्र४ दीनानाथ के आगे दीन होकर रात दिन नाचते रहते थे ।
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राघवदासजी कहते हैं आप गोकुल में नवनीतप्रिय के सामने पद गाते हुये विरहविलाप से सुध बुध भूलकर प्रभु से मिले थे । जैसे जल के साथ रहने वाली मच्छी जल से अलग होते ही प्राण दे देती है, वैसे ही भजन द्वारा प्रभु के साथ५ रहने से आप का प्राण विद्ध हो गया था अर्थात् प्रभु वियोग से व्यथित होकर प्रभु में ही मिल गये थे ॥२९४॥
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विशेष विवरण- वि० सं० १५५० मार्ग शीर्ष शु० ७ को परमानन्दजी का जन्म हुआ था । आप कन्नोज के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे । जिस दिन आपका जन्म हुआ, उसी दिन एक धनी ने आपके पिता को दान रूप में बहुत-सा धन दिया था । घर में परमानन्द छाया हुआ था । इससे बालक का नाम भी पिता ने परमानन्द ही रख दिया था ।
आप युवावस्था में ही अच्छे कवि और कीर्तनकार के रूप में प्रसिद्ध हो गये थे । २६ वर्ष की अवस्था तक कन्नोज में रहे थे । फिर प्रयाग चले आये थे । काव्य संगीत आदि में पूर्ण होने से आपके पास साधु-संत आते थे । आप एकादशी को जागरण करते थे । उसमें भगवत् लीलाओं का कीर्तन करते थे ।
यमुना पार अडैल ग्राम से वल्लभाचार्यजी का जलधरिया कपूर आपके जागरण में आता था । एक एकादशी की रात में आप कीर्तन कर रहे थे । कपूर चल पड़ा और बिना नाव ही तैरकर यमुना पार चला गया । परमानन्दजी को उसकी गोद में शिशु रूप में श्रीकृष्ण का दर्शन हुआ । फिर इनको स्वप्न में वल्लभाचार्य के दर्शन की प्रेरणा मिली ।
आप आचार्य के पास गये । आचार्य ने इनको भगवद्-यश गान करने को कहा । आपने विरह तथा बाल लीला के पद सुनाये । फिर वल्लभाचार्य ने इनको ब्रह्म सम्बन्ध दे दिया । वि० सं० १५८२ में वल्लभाचार्य के साथ व्रज जाते समय कन्नोज में आचार्य को आपने अपने पूर्व स्थान में ठहराया था ।
वहाँ ही इनके मुख से "हरि तेरी लीला की सुधि आवे ।" पद सुनकर आचार्य तीन दिन तक मूर्छित रहे थे । फिर गोकुल गये और गोकुल से वल्लभाचार्य के साथ ही गोवर्द्धन गये और वहाँ हो सदा के लिये रह गये । सुरभिकुंड पर श्यामतमाल वृक्ष के नीचे रहते थे ।
गोस्वामी विठ्ठलनाथजी ने इनको अष्ट छाप में सम्मिलित किया था । वि० सं० १६४१ में भाद्रपद कृष्णा नवमी को सुरभिकुंड पर ही गोलोकवासी हुए थे । उस समय गोस्वामी विट्ठलनाथजी आपके पास ही थे ।
वे नवनीतप्रिय के यहाँ से वेसुध होकर आए थे तब वे बोलते नहीं थे । विट्ठलनाथजी ने उनके शरीर पर हाथ फेरा तब उनने यह कहकर - "प्रेम पात्र तो केवल नन्दनन्दन ही है भक्त तो सुख और दुःख दोनों में उन्हीं की कृपा के सहारे जीते रहते है ।" बस प्राण छोड़ दिया था । आपकी रचनाओं का संग्रह 'परमानन्दसागर' के नाम से प्रसिद्ध है ।
(क्रमशः)

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