सोमवार, 17 जून 2024

*सुसंगति कौ अंग ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*बहुगुणवंती बेली है, मीठी धरती बाहि ।*
*मीठा पानी सींचिये, दादू अमर फल खाहि ॥*
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*सुसंगति कौ अंग ॥चौपाई॥*
सुबुधि भोमि तहाँ अंम्रत बेली ।
सत्त सील की कूँपल मेल्ही ॥
दया धरम का पान रली ।
प्रेम प्रीति सौं फूल फली ॥
स्वांति सुबास अधिक महकाई ।
सूंघत प्राण भई सुखदाई ॥
बिलसत संत भंवर रसभोगी ।
अजरावर ते भये अरोगी ॥
सतगुरि सींची सूकि न जासी ।
बषनां फल लागा अबिनासी ॥१॥
सुबुधि रूपी भूमि पर अमृत देने वाली एक वेलि उत्पन्न हुई । उसमें सत और शील की कोपलें आने लगीं । दया धर्म के पत्तों से वह लद गई । प्रेम-प्रीति के फूलों से वह फलवती हुई । शांति रूपी सुगंधि चारों ओर महकने लगी । जिस भी प्राणी ने इस सुगंधि को सूंघ लिया वही सुखमय हो गया । 
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संत रूपी भ्रमर इस रस को भोगते हैं, विलसते हैं । ये संत अजरावर = अजर अमर और संसार के विषय भोग रूपी रोगों से मुक्त होकर अरोगी हो गये हैं । वस्तुतः इस अमृतवेलि को ब्रहमनिष्ठ व श्रोत्रिय सद्गुरु ने सींची है । अतः यह कभी भी सूकने वाली नहीं है । क्योंकि इसमें अविनाशीत्व रूपी फल लग चुका है ॥१॥
इति अंम्रतबेली कौ संपूर्ण ॥अंग ११९॥साषी २२५॥
इति श्रीबषनांजी की साषी समसत संपूर्ण भवेत् ॥अंग ११९॥साषी २२५॥
(क्रमशः)

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