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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार
विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*बहुगुणवंती
बेली है, मीठी धरती बाहि ।*
*मीठा
पानी सींचिये, दादू अमर फल खाहि ॥*
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*सुसंगति
कौ अंग ॥चौपाई॥*
सुबुधि
भोमि तहाँ अंम्रत बेली ।
सत्त सील
की कूँपल मेल्ही ॥
दया धरम
का पान रली ।
प्रेम
प्रीति सौं फूल फली ॥
स्वांति
सुबास अधिक महकाई ।
सूंघत
प्राण भई सुखदाई ॥
बिलसत
संत भंवर रसभोगी ।
अजरावर
ते भये अरोगी ॥
सतगुरि
सींची सूकि न जासी ।
बषनां फल
लागा अबिनासी ॥१॥
सुबुधि
रूपी भूमि पर अमृत देने वाली एक वेलि उत्पन्न हुई । उसमें सत और शील की कोपलें आने
लगीं । दया धर्म के पत्तों से वह लद गई । प्रेम-प्रीति के फूलों से वह फलवती हुई ।
शांति रूपी सुगंधि चारों ओर महकने लगी । जिस भी प्राणी ने इस सुगंधि को सूंघ लिया
वही सुखमय हो गया ।
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संत रूपी
भ्रमर इस रस को भोगते हैं, विलसते हैं । ये संत अजरावर = अजर अमर और संसार के
विषय भोग रूपी रोगों से मुक्त होकर अरोगी हो गये हैं । वस्तुतः इस अमृतवेलि को
ब्रहमनिष्ठ व श्रोत्रिय सद्गुरु ने सींची है । अतः यह कभी भी सूकने वाली नहीं है ।
क्योंकि इसमें अविनाशीत्व रूपी फल लग चुका है ॥१॥
इति
अंम्रतबेली कौ संपूर्ण ॥अंग ११९॥साषी २२५॥
इति
श्रीबषनांजी की साषी समसत संपूर्ण भवेत् ॥अंग ११९॥साषी २२५॥
(क्रमशः)
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