सोमवार, 17 जून 2024

*श्री रज्जबवाणी, साधू का अंग(६)*

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*लोहा पारस परस कर, पलटै अपणा अंग ।*
*दादू कंचन ह्वै रहै, अपने सांई संग ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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सवैया ग्रंथ भाग ३
साधु का अंग ६
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पाप प्रचंड कटै सत संगति,
पानी पाषाण सौं पाप न जाँहीं ।
चंदन संग सुगंध बनी सब,
निम्ब सुगंध न बाग हुं माँहीं ॥
चुंबक चाहि सूई सब चेतन,
सो बल और पाषाण हुं नांही ।
पारस लागि सुपलटत लोह ज्यों,
रज्जब त्यों न सुमेरू शिलाहीं ॥५॥
सत्संगति से प्रचंड पाप नष्ट हो जाते हैं और जल एवं पाषाण से पाप नष्ट नहीं होते ।
चन्दन के संग से वन सुगंधित हो जाता है किंतु नीम की सुगंध एक बाग में भी नहीं फैलती ।
चुम्बक पत्थर की इच्छा से सुई चेतन होकर चुंबक से जा मिलती है, वह शक्ति अन्य पत्थरों में नहीं होती ।
जैसे पारस से स्पर्श होते ही लोहा बदल जाता है, वैसे ही सुमेरु की स्वर्णशिला से नहीं बदलता है । ऐसे ही सत्संग से जो लाभ होता है वह अन्य से नहीं होता ।
(क्रमशः)

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