बुधवार, 10 जुलाई 2024

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*राम भक्ति भावै नहीं, अपनी भक्ति का भाव ।*
*राम भक्ति मुख सौं कहै, खेलै अपना डाव ॥*
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*साभार ~ @Chetan Ram*
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*भड़भूजे वाले की अद्धभुत सत्य कथा......*
काशी में मैदागिन के पास मैदान में कथा करने के लिए एक बहुत बड़े प्रख्यात वक्ता आए थे। उन दिनों बड़ी-बड़ी गाड़ियां नहीं होती थी संतों के पास और काशी में बहुत सुविधा भी नहीं रहती कारों में चलने की। गलियों का देश काशी।
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गंगाजी के तट पर ही किसी आश्रम में रुके हुए वे प्रख्यात वक्ता सहज ही कथास्थल तक पैदल ही आते-जाते थे। पीछे-पीछे उनके शिष्यों और आयोजकों का समूह होता था। मार्ग में जितने भी लोग उन्हें मिलते, देखते, सब प्रणाम करते। पर एक भड़भूजा प्रणाम नहीं करता था।
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हजारों लोग प्रणाम करें तो ठीक से दृष्टि पड़ती भी नहीं, पर उस भीड़ में कोई एक प्रणाम न करे, तो कुछ आहत होता है भीतर से, मनोविज्ञान है या कहीं अहंकार तृप्त नहीं होता होगा। वक्ता महोदय ने देखा कि दो दिन, तीन दिन, चार दिन, पांच दिन हो गए, सब दुकानदार, मार्ग के दोनों तरफ रास्ता देते लोग, छतों पर से माताएँ, बच्चे प्रणाम करते हैं, हाथ जोड़े खड़े रहते हैं पर ये चने ही भूनता रहता है और ठीक से देखता भी नहीं।
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कुछ हुआ भीतर, कुछ टूटा या जुड़ा... अहंकार अब बाहर आकर छलकने को आतुर हो गया। छठे दिन भी वही हुआ... भड़भूजे ने आज भी प्रणाम नहीं किया तो वे रससिद्ध वक्ता उसकी दुकान में चले गए। भड़भूजे की तंद्रा जैसे भंग हुई... जैसे कार्य में निमग्न होते-होते समाधिस्थ स्थिति से बाहर लाया गया हो। देखा सामने कि रामकथा बांचने वाले महाराज खड़े हैं।
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पूछा - का हो बाबा ! आज चना-चबेना का प्रसाद बाँटेगे कथा में ? यह सुनकर तो उन वक्ता का अभिमान बाहर छलकने लगा, क्रोध की रेखाएं सुंदर तिलक अंकित ललाट पर उभर आईं और पूछने लगे कि, "तुम्हें शास्त्र ज्ञान है कि नहीं ? शास्त्रों में कहा गया है कि कथावक्ता सामने से आता हुआ दिखे तो उसे प्रणाम करना चाहिए, कथा में नहीं जाने पर भी कथा का फल मिल जाता है।"
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भड़भूजा मुस्कुराया और कहने लगा.... महाराज जिनकी कथा हो रही है यदि वे सन्मुख ही हों तो किसको प्रणाम करना चाहिए ? कई सारे प्रश्न-प्रतिप्रश्न हुए, संभावित पराजय देख वक्ता जी का क्रोध अब शब्दों में उतर गया और कहने लगे कि जानते नहीं हो हम मानस की एक-एक चौपाई के तीस-तीस अर्थ कर सकते हैं, महीने के हर दिन के अनुसार से एक नया अर्थ।
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भड़भूजा मुस्कुराया... कहने लगा महाराज बस ! मात्र तीस अर्थ ? बाबू ये काशी है, यहां स्वच्छक भी ३६५ अर्थ कर सकता एक चौपाई का तो ब्राह्मणों की तो बात ही क्या ! यह सुनकर उन वक्ता ने चुनौती दे दी कि क्या तुम कर सकते हो ३६५ अर्थ ? शिवजी का प्रताप... भड़भूजे ने कहा कि हां ! मैं ३६५ अर्थ कर सकता हूँ।
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चुनौती स्वीकार हुई, वे वक्ता उस भड़भूजे को लेकर कथा स्थल पहुंचे। अपनी गादी पर बैठकर मंगलाचरण किया और श्रोताओं से व्यंग्यात्मक तरीके से ही कहा कि ये चना भूनने वाले हैं और कहते हैं कि एक चौपाई का ३६५ अर्थ कर सकते हैं, मेरी चुनौती स्वीकार कर आए हैं। अब ये एक चौपाई के इतने नहीं तो कम से कम दस-बीस अर्थ ही बताएं। और यह कहकर माइक उस भज़भूजे को दे दिया।
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भड़भूजा भी पहुंचा हुआ.... कहने लगा कि, महाराज आप एक चौपाई के मात्र तीस अर्थ कर सकते हैं और इतनी सुंदर गद्दी पर बैठे हैं और मैं जो ३६५ अर्थ कर सकता हूँ, नीचे खड़े होकर सुनाऊं...? वाह ! यह नहीं चलेगा महाराज ! हमारे लिए भी ऊंची गद्दी लगाई जाय।
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व्यासपीठ के बगल में व्यासपीठ से एक अंगुल छोटी गद्दी लगाई गई। भड़भूजे को बैठाया गया, गले में एक माला डाली गई।
सियाराम मय सब जग जानि,
करहुं प्रनाम जोरि जुग पानि॥....
इस चौपाई की व्याख्या शुरू हुई। शेष चार दिनों तक तय समय पर यही एक चौपाई पर वो भड़भूजा आकर व्याख्या करता रहा।
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नौ दिवसीय अनुष्ठान का परायण दिवस, अंतिम व्याख्या कर सियाराम जी को प्रणाम कर नमः पार्वती पतये हर हर महादेव का जयकार किया। पूरा काशीक्षेत्र हर हर महादेव के उच्चार से गुंजायमान हो गया। चार दिन से व्यास पीठ पर सुनते रहे वे वक्ता रोते ही रहे कि अहंकार मुझे था और मैं भड़भूजे में देख रहा था अहंकार की ग्लानि हुई।
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व्यासपीठ से उतरकर उस भड़भूजे को प्रणाम करने लगे तो उसने रोक दिया कि नहीं महाराज आप व्यास हैं और आप प्रणाम करेंगे तो हमें पाप चढ़ जाएगा। भड़भूजा प्रणाम कर चला आया। पीछे भंडारा, व्यासपूजन सब हुआ। काशी ने अपने शरणागत के मान की रक्षा की। बाद में वह भड़भूजा कभी उस दुकान पर, काशी में ही किसी को नहीं दिखाई दिया।

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