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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४३. गूढ़ अर्थ कौ अंग १२५/१२८*
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कहि जगजीवन तूंबड़ी९, कड़वी मीठी बेलि ।
हरि भजि चाख१० बनारिये११, पारब्रह्म सौं खेलि ॥१२५॥
{९. तूंबड़ी-तुंबी(=लौकी, घीया)} (१०. चाखि-चख कर)
{११. बनारिये=काटिये(छोटे छोटे टुकड़े कीजिये)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि लौकी लगी हुयी पता नहीं चलती कि यह कड़वी है या मीठी है बेल पर समान रुप से लगी रहती है । जब उसे भोग योग्य बनाते हैं तो चखते हैं परमात्मा भी अपनाने से पहले परखते हैं ।
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कहि जगजीवन षा सबद, लड़ौ आप सूं जांनि ।
ए तजि हरि भजि रांम कहि, पूरण ब्रह्म पिछांणि ॥१२६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि खा शब्द उपभोगी है । इसमें स्वयं ही उससे पार पाना पड़ता है किसी के खाये से हमारी उदरपूर्ति नहीं होती । अतः हे जीवात्मा सब छोड़ हरि का भजन कर व पूर्ण ब्रह्म परमात्मा को पहचान ।
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कहि जगजीवन बसेली१, घाट घडण कूं रांम ।
कर गहि करता संवारै, जे जन सुमिरै रांम ॥१२७॥
(१. बसेली=वसूली=वह औजार जिससे मिस्त्री ईटों को गढ़ता छीलता है)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सभीजन बिना हिले डुले हरि नाम में गिरफ्तार रहें तो आशिकों के राजदिल परमात्मा उस जीव के ही आशिक होंगे हिलना डुलना से अभिप्राय व्यर्थ की चेष्टाएँ ।
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निसि सोवै दिनि दाइजै, भली बिहाई रांम ।
कहि जगजीवन सुंदरी, सरस संवारै धांम ॥१२८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आत्म सुन्दरी रित में तो भजन कर परमात्मा का सानिध्य ले सोती रहती है व दिन में व्यथित रहती है । इस प्रकार यह आत्मसुन्दरी अपना जीवन रुपी धाम संवार रही है ।
(क्रमशः)

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