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*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन अंध ।*
*दादू मुक्ता छाड़ कर, गल में घाल्या फंद ॥*
*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन नांहि ।*
*दादू निर्बंध छाड़ कर, बंध्या द्वै पख माँहि ॥*
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*साभार ~ @Krishna Krishna*
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*गुरु बनने के चक्कर मे कई लोग ठीक से शिष्य भी नहीं बन पाते*
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ध्यान रखना, जब भी तुम कुछ चाहते हो बाहर के संसार में तो तुम्हें आत्मा से मूल्य चुकाना पड़ता है। कौड़ी—कौड़ी भी तुम बाहर से लाते हो तो कुछ गंवाकर लाते हो। ऐसे मुफ्त कुछ भी नहीं मिलता। और बड़ा महंगा सौदा है।
पांच रुपए कमा लेते हो जरा सा झूठ बोलकर, तुम सोचते हो, इतने से झूठ में क्या बिगड़ेगा ? लेकिन उतने झूठ में तुमने आत्मा का एक कोना गंवा दिया।
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तुमने भीतर की एक स्वच्छता गंवा दी। तुमने भीतर की एक शांति गंवा दी। क्योंकि एक झूठ हजार झूठ लाएगा; फिर कोई अंत नहीं है। हजार झूठ, करोड़ झूठ लाएंगे। एक छोटा सा झूठ बोलकर देखो कि झूठ में कैसी संतानें पैदा होती हैं। झूठ की बड़ी श्रृंखला पैदा होती है, बच्चे पर बच्चे पैदा होते चले जाते हैं। झूठ संतति—निग्रह को मानता ही नहीं। वह पैदा ही किए चला जाता है।
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सत्य बिलकुल बांझ है। खयाल करो, जब भी तुम एक सत्य बोलते हो, बात खतम हो गई; पूर्णविराम आ गया। झूठ का सिलसिला अंत होता ही नहीं। सच बोलते हो, याद भी नहीं रखना पड़ता। झूठ के लिए बड़ी याददाश्त चाहिए। सच के लिए याद्दाश्त की भी जरूरत नहीं; उतना बोझ भी जरूरी नहीं।
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झूठ के लिए तो याद्दाश्त चाहिए ही। किसी से कुछ बोला, किसी से कुछ बोला। इस आदमी से झूठ बोल दिया आज, अब यह कल फिर पूछे तो कल का झूठ भी याद रखना चाहिए। और झूठ खिसकता है, क्योंकि झूठ की कोई जगह नहीं होती है ठहरने की। झूठ सरकता है। अगर तुम याद न रखो, बार—बार लौट—लौटकर याद न करो, तो तुम खुद ही भूल जाओगे। तुम खुद ही झंझट में पड़ जाओगे।
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सत्य को याद रखने की भी जरूरत नहीं। जो है, उसे याद रखने की क्या जरूरत ? वर्षों बाद भी याद आ जाएगा। जब जरूरत होगी याद आ जाएगा। उससे अन्यथा याद आने का कोई कारण नहीं। सत्य बोलने वाले आदमी का मन निर्भार होता है। जो निर्भार होता है, वह आकाश में उड़ सकता है। झूठ बोलने वाला आदमी अपने गले में पत्थर लटकाए चला जाता है। फिर आकाश में उड़ना चाहता है तो कैसे उड़े ? ये पत्थर जान ले लेते हैं।
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एक झूठ बोले, तुमने आत्मा का एक कोना खराब कर दिया। मंदिर में तुम गंदगी ले आए। फूल को तुमने पत्थर से ढांक दिया। सड़ेगा यह फूल अब; इसके जीवन में अब तुमने अवरोध खड़ा कर दिया। तुमने झरने की सहज धारा को खंडित कर दिया। तुमने एक चट्टान अड़ा दी।
एस धम्मो सनंतनो-31, ओशो
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