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*तन गृह छाड़ै लाज पति, जब रस माता होइ ।*
*जब लग दादू सावधान, कदे न छाड़े कोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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प्रश्न: भगवान, ऐसा कहा गया है कि कुंडलिनी जब जागती है तो वह खून पी जाती है, मांस खा जाती है। इसका क्या अर्थ है ?
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हां, इसका अर्थ होता है, इसका अर्थ होता है। इसका अर्थ बिलकुल वैसा ही होता है, जैसा कहा गया है; प्रतीक अर्थ नहीं होता। असल में, कुंडलिनी जागे तो शरीर में बड़े रूपांतरण होते हैं; बड़े रूपांतरण होते हैं। कोई भी ऊर्जा शरीर में जागेगी नई, तो शरीर का पुराना पूरा का पूरा कंपोजिशन बदलता है। बदलेगा ही।
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जैसे, हमारा शरीर कई तरह के व्यवहार कर रहा है जिनका हमें पता नहीं है, जो अनजाने और अनकांशस हैं। जैसे कंजूस आदमी है। अब कंजूसी तो मन की बात है, लेकिन शरीर भी उसका कंजूस हो जाएगा। और शरीर उन तत्वों को डिपॉजिट करने लगेगा जिनकी भविष्य में जरूरत है। अकारण इकट्ठे कर लेगा, इतने इकट्ठे कर लेगा कि उनके इकट्ठे होने से परेशानी में पड़ जाएगा। वे बोझिल हो जाएंगे।
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अब एक आदमी बहुत भयभीत है। तो शरीर उन तत्वों को बहुत इकट्ठे करके रखेगा जिनसे भय पैदा किया जा सकता है। नहीं तो कभी भय का तत्व न रहे पास, और तुम्हें भयभीत होना है, तो शरीर क्या करेगा ? तुम उससे मांग करोगे--मुझे भयभीत होना है ! और शरीर के पास भय की ग्रंथियां नहीं हैं, भय का रस नहीं है, तो क्या करेगा ? तो वह इकट्ठा करता है।
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भयभीत आदमी का शरीर भय की ग्रंथियां इकट्ठी कर लेता है, भय इकट्ठा कर लेता है। अब जिस आदमी को भय में पसीना छूटता है, उसके शरीर में पसीने की ग्रंथियां बहुत मजबूत हो जाती हैं और बहुत पसीना वह इकट्ठा करके रखता है। कभी भी, रोज दिन में दस दफे जरूरत पड़ जाती है।
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तो हमारा शरीर जो है, वह हमारे चित्त के अनुकूल बहुत कुछ इकट्ठा करता रहता है। जब हमारा चित्त बदलेगा तो शरीर बदलेगा। और जब हमारा चित्त बदलेगा और कुंडलिनी जागेगी तो पूरा रूपांतरण होगा। उस रूपांतरण में बहुत कुछ बदलाहट होगी।
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उसमें तुम्हारा मांस कम हो सकता है, तुम्हारा खून कम हो सकता है, लेकिन उतना ही कम हो सकता है जितने की तुम्हारे लिए जरूरत रह जाए। शरीर एकदम रूपांतरित होगा। शरीर के लिए जितना निपट आवश्यक है, वह रह जाएगा, शेष सब जलकर खाक हो जाएगा--तभी तुम हलके हो पाओगे, तभी उड़ने योग्य हो पाओगे। वह होगा फर्क।
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इसलिए वह ठीक है खयाल उनका। इसलिए साधक को एक विशेष प्रकार का भोजन, एक विशेष प्रकार की जीवन व्यवस्था, वह सब जरूरी है। अन्यथा वह बहुत मुश्किल में पड़ सकता है।
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कुंडलिनी की आग में सब कचरा भस्म फिर कुंडलिनी जब जागेगी, तुम्हारे भीतर बहुत गर्मी पैदा होगी; क्योंकि वह तो इलेक्ट्रिक फोर्स है; वह तो बहुत तापग्रस्त ऊर्जा है। जैसा कि मैंने तुमसे कहा कि सर्प एक प्रतीक है, कुछ जगह कुंडलिनी को अग्नि ही प्रतीक समझा गया है। वह भी अच्छा प्रतीक था।
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तो वह आग की तरह ही जलेगी तुम्हारे भीतर और लपटों की तरह ऊपर उठेगी। उसमें तुम्हारा बहुत कुछ जलेगा। तो अत्यंत रूखापन भीतर पैदा हो सकता है कुंडलिनी के जगने से। इसलिए व्यक्तित्व स्निग्ध चाहिए और व्यक्तित्व में थोड़े रस-स्रोत चाहिए।
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अब जैसे क्रोधी आदमी है। अगर क्रोधी आदमी की कुंडलिनी जग जाए तो वह मुश्किल में पड़ेगा; क्योंकि वह वैसे ही रूखा आदमी है, और एक आग जग जाए उसके भीतर तो कठिनाई हो जाएगी। प्रेमी आदमी है, वह स्निग्ध है; उसके भीतर रस की स्निग्धता है। कुंडलिनी जगेगी तो कठिनाई नहीं होगी।
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इन सब बातों को ध्यान में रखकर वह बात कही गई है। लेकिन वह बहुत क्रूड ढंग से कही गई है। और पुराना ढंग सभी क्रूड था। वह बहुत विकसित नहीं है कहने का ढंग। पर ठीक कहा है कि मांस जलेगा, खून जलेगा, मज्जा जलेगी।
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क्योंकि तुम बदलोगे पूरे के पूरे; तुम दूसरे आदमी होनेवाले हो, तुम्हारी सारी की सारी व्यवस्था, सारी कंपोजिशन बदलने को है। इसलिए साधक की तैयारी में वह भी ध्यान में रखना अत्यंत जरूरी है।
अब फिर कल बात करेंगे।
ओशो; जिन खोजा तिन पाईया-- प्रवचन_18
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