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*दादू पाती प्रेम की, बिरला बांचै कोइ ।*
*बेद पुरान पुस्तक पढै, प्रेम बिना क्या होइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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बड़ा भया सो कहा बरस सौ साठ का।
घणां पढया तो कहा चतुर्विध पाठ का।
छापा तिलक बनाय कमंडल काठ का।
हरि हां, वाजिद,
एक न आया हाथ पसेरी आठ का॥
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उम्र से कोई बड़ा नहीं होता। वाजिद कहते हैं कि तुम सौ साल के हो जाओ, कि साठ साल के हो जाओ, उम्र से कोई बड़ा नहीं होता। बड़प्पन प्रेम से उपलब्ध होता है, शीतलता से उपलब्ध होता है, गंभीर शांति से उपलब्ध होता है, प्रशांति से उपलब्ध होता है। उम्र से कोई संबंध बड़े होने का नहीं है। और घणां पढया तो कहा चतुर्विध पाठ का। तुम चारों वेद कंठस्थ कर लो, तो भी तुम ज्ञानी न हो जाओगे। ज्ञान तो तुम्हारे भीतर निर्विचार चित्त में जन्मता है। ध्यान में ज्ञान का जन्म होता है।
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कहै वाजिद पुकार सीख एक सुन्न रे। बस एक शून्य तुम सीख लो, तो वाजिद कहते हैं, तुमने सारे शास्त्र पा लिए। सब कुरान, सब पुराण, सब वेद तुम्हारे भीतर उमगने लगेंगे, जन्मने लगेंगे।
छापा तिलक बनाय कमंडल काठ का।
ऊपर के आयोजनों में ही समय मत गंवा दो।
हरि हां, वाजिद, एक न आया हाथ पसेरी आठ का।
आठ पसेरी का होता है मन। यह प्रतीक है, कि इस तरह के ऊपर के आयोजन से मन पकड़ में न आएगा।
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वाजिद, एक न आया हाथ पसेरी आठ का।
प्रतीक ! आठ पसेरी का मन होता था। अब तो होता नहीं, वाजिद जब थे तब होता था। ऐसे ही तुम्हारे भीतर जो मन है, वह हाथ न आएगा बाहर के आयोजनों से, आचरण से, चरित्र से। नहीं, भीतर की अंतर-ज्योति से ! शांत बनो, शून्य बनो। प्रेम बनो, दान बनो। जीवन बनो और जीवन के लिए छाया बनो, जीवन बनो और जीवन का सम्मान बनो। क्योंकिजीवन ही परमात्मा है, और कोई परमात्मा नहीं है। जिसने जीवन को प्रेम करना सीख लिया, वह परमात्मा के करीब आने लगता है। जीवन की और प्रेम की सीढ़ियां चढ़ते- चढ़ते ही एक दिन परमात्मा का मंदिर मिल जाता है।
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वाजिद का पाठ, वाजिद की सीख दो शब्दों की है- अंत में उन दो शब्दों को याद रखना - एक है शून्य और एक है प्रेम। भीतर शून्य हो जाओ, बाहर प्रेम हो जाओ, शेष सब अपने-आप सध जाएगा।
और शून्य और प्रेम एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शून्य-जब तुम अकेले हो। प्रेम - जब तुम किसी के साथ हो। प्रेम संबंध और शून्य असंबंध। दोनों साध लो। दोनों साथ- साथ साध लो। और तुमने सब साध लिया! परमात्मा तुम्हारा हो ही गया! परमात्मा तुम्हारा है ही।
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शून्य हो जाओ, तो भीतर पहचान में आ जाएगा। और प्रेम हो जाओ, तो बाहर पहचान में आ जाएगा। शून्य की आंख उसे भीतर खोज लेती है। और प्रेम की आंख उसे बाहर खोज लेती है। और जिसने बाहर भी जाना उसे, भीतर भी जाना उसे, उसका बाहर भी मिट गया, भीतर भी मिट गया। और जो बाहर और भीतर के पार हो गया, वही द्वंद्वातीत है, वही अद्वैत है।
आज इतना ही।
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