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*तहँ बिन बैना बाजैं तूर,*
*विकसै कँवल चंद अरु सूर ॥*
*पूरण ब्रह्म परम प्रकाश,*
*तहँ निज देखै दादू दास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*रास क्या है ? रासबिहारी होते हुए भी श्रीकृष्ण ब्रम्हाचारी कहलाए, इसका मर्म क्या है ?*
रास को समझने के लिये पहली जरूरत तो यह समझना है कि सारा जीवन ही रास है । पहले तो रास का जो जागतिक अर्थ है, वह समझ लेना उचित है, फिर कृष्ण के जीवन में उसकी अनुछाया है, वह समझनी चाहिए । चारों तरफ़ आँख उठायें तो रास के अतिरिक्त और क्या हो रहा है ? आकाश में दौड़ते हुए बादल हों, सागर की तरफ़ दौड़ती हुई सरिताएँ हों या भंवरे गीत गाते हों या पक्षी चहचहाते हों या मनुष्य प्रेम करता हो, इस पूरे फैले हुए विराट को अगर हम देखें तो रास के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो रहा है।
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रास के बड़े विराट जागतिक अर्थ हैं। पहला तो यही कि इस जगत के विनियोग में, इसके निर्माण में, इसके सृजन में जो मूल आधार है, वह विरोधी शक्तियों के मिलन का आधार है। शक्ति जब दो हिस्सों में विभाजित हो जाती है, तो खेल शुरू हो जाता है । शक्ति एक हो जाती है, खेल बंद हो जाता है। शक्ति एक हो जाती है तो प्रलय हो जाती है। शक्ति दो में बँट जाती है तो सृजन हो जाता है। सृजन दो के बिना मुश्किल है। कृष्ण के रास का क्या अर्थ होगा इस संदर्भ में ?
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हम कृष्ण को गोपियों के साथ नाचते हुए देखते हैं ।कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना साधारण नृत्य नहीं है । कृष्ण का गोपियों के साथ नाचना उस विराट रास का छोटा सा नाटक है। वह जो समस्त में चल रहा है नृत्य, उसकी एक बहुत छोटी सी झलक है । इस झलक के कारण ही यह सम्भव हो पाया कि उस रास का कोई कामुक अर्थ नहीं रह गया। उस रास का कोई सेक्सुअल मीनिंग नहीं है। ऐसा नहीं है कि कामुक अर्थ के लिये कोई निषेध है।
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लेकिन बहुत पीछे छूट गई वह बात। कृष्ण कृष्ण की तरह वहाँ नहीं नाचते हैं, कृष्ण वहाँ पुरुष तत्व की तरह नाचते हैं। गोपी स्त्री की तरह वहाँ नहीं नाचती हैं, गहरे में वे प्रकृति ही हो जाती हैं । प्रकृति व पुरुष का नृत्य है वह । तो जिन लोगों ने उसे कामुक अर्थ में ही समझा है, उन्होंने नहीं समझा है, वे नहीं समझ पायेंगे। वहाँ पुरुष शक्ति और स्त्री शक्ति का नृत्य चल रहा है । वहाँ व्यक्तियों से कोई लेना-देना नहीं है ।
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इसीलिए यह भी सम्भव हो पाया कि एक कृष्ण बहुत गोपियों के साथ नाच सकें । अन्यथा एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ नहीं नाच सकता है । एक व्यक्ति बहुत स्त्रियों के साथ एक साथ प्रेम का खेल नहीं खेल सकता है । और प्रत्येक गोपी को ऐसा दिखाई पड़ सका कि कृष्ण उसके साथ भी नाच रहे हैं । प्रत्येक गोपी को अपना कृष्ण मिल सका। निश्चित ही विराट प्रकृति और पुरुष के सम्मिलन का वह नृत्य है ।
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कृष्ण का यह रास बिल्कुल ही अव्यवस्थित है। वहाँ कोई व्यवस्था नहीं है । वहाँ सिर्फ शक्तियों का खेल है । बहुत जल्दी कृष्ण मिट जाते हैं व्यक्ति की तरह, शक्ति रह जाते हैं । बहुत शीघ्र गोपी मिट जाती हैं व्यक्ति की तरह, सिर्फ शक्तियां रह जाती हैं । स्त्री और पुरुष की शक्ति का यह नृत्य गहन तृप्ति लाता है, गहन आनंद लाता है । वह आनंद फिर बहने लगता है, उस नृत्य से फिर आनंद चारों ओर जगत के कण-कण तक व्याप्त हो जाता है। तो रास को मैं स्त्री और पुरुष के बीच विभक्त जो विराट की शक्ति है, उसके मिलन, उसकी ओवर फ्लोइंग का प्रतीक मानता हूँ ।
*ओशो कृष्ण स्मृति पुस्तक*
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