बुधवार, 10 जुलाई 2024

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*शब्द अनाहद उपजै जहाँ,*
*सुषमन रंग लगावै तहाँ ।*
*तहँ रंग लागे निर्मल होइ,*
*ये तत उपजे जानै सोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*

मैं अब तक मुक्त पुरुषों पर बोला हूं। पहली बार एक मुक्तनारी पर चर्चा शुरू करता हूं। मुक्त पुरुषों पर बोलना आसान था। उन्हें मैं समझ सकता हूं–वे सजातीय हैं। मुक्तनारी पर बोलना थोड़ा कठिन होगा–वह थोड़ा अजनबी रास्ता है। ऐसे तो पुरुष और नारी अंतरतम में एक हैं, लेकिन उनकी अभिव्यक्तियां बड़ी भिन्न-भिन्न हैं। उनके होने का ढंग, उनके दिखायी पड़ने की व्यवस्था, उनका वक्तव्य, उनके सोचने की प्रक्रिया, न केवल भिन्न है बल्कि विपरीत है।
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अब तक किसी मुक्तनारी पर नहीं बोला। तुम थोड़ा मुक्त पुरुषों को समझ लो, तुम थोड़ा मुक्ति का स्वाद चख लो, तो शायद मुक्तनारी को समझना भी आसान हो जाए। जैसे सूरज की किरण तो सफेद है, पर प्रिज्म से गुजर कर सात रंगों में टूट जाती है। हरा रंग लाल रंग नहीं है, और न लाल रंग हरा रंग है; यद्यपि दोनों एक ही किरण से टूटकर बने हैं, और दोनों अंततः मिलकर पुनः एक किरण हो जाएंगे। 
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टूटने के पहले एक थे, मिलने के बाद फिर एक हो जाएंगे, पर बीच में बड़ा फासला है; और फासला बड़ा प्रीतिकर है। बड़ा भेद है बीच में, और भेद मिटना चाहिए। भेद सदा बना रहे, क्योंकि उसी भेद में जीवन का रस है। लाल लाल हो, हरा हरा हो। तभी तो, हरे वृक्षों पर लाल फूल जाते हैं। हरे वृक्षों पर हरे फूल बड़ी शोभा न देंगे। लाल वृक्षों पर लाल फूल फूल जैसे न लगेंगे।
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परमात्मा में तो स्त्री और पुरुष एक हैं। वहां तो किरण सफेद हो जाती है। लेकिन अस्तित्व में, प्रकट लोक में, अभिव्यक्ति में बड़े भिन्न हैं; और उनकी भिन्नता बड़ी पप्रीतिकर है। उनके भेद को मिटाना नहीं है, उनके भेद को सजाना है। उनके भेद को नष्ट नहीं करना है, उनके भीतर छिपे अभेद को देखना है। स्त्री और पुरुष एक ही स्वर दिखायी पड़ने लगे–बिना भेद को मिटाये–तो तुम्हारे पास आंख है।
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वीणावादक वीणा के तारों को छेड़ता है। बहुत स्वर पैदा होते हैं। उंगलियां वही हैं, तार भी वही हैं, छेड़खानी का थोड़ा सा भेद है; पर बड़े भिन्न स्वर पैदा होते हैं। सौभाग्य है कि भिन्न स्वर पैदा होते हैं, नहीं तो संगीत का कोई उपाय न था। अगर एक ही स्वर होता तो बड़ा बेसुरा हो गया होता, बड़ी ऊब पैदा होती। संसार सुंदर है, क्योंकि भेद में अभेद है। सारे स्वरों के बीच वही उंगलियों का स्पर्श है, उन्हीं तारों की ध्वनि है। संगीतज्ञ एक है, संगीत का माध्यम एक है, पर संगीत की तरंगों में बड़े भेद हैं।
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पुरुष बड़ी अलग तरंग है, स्त्री बड़ अलग तरंग है। अलग ही नहीं, मैं कहता हूं बड़ी विपरीत, एक दूसरे के प्रतिकूल जाती हुई तरंगें हैं; और इसीलिए तो स्त्री-पुरुष के बीच इतना आकर्षण है। एक-दूसरे से भिन्न हैं, इसलिए एक-दूसरे को जानने, उघाड़ने, एक दूसरे के रहस्य को पहचानने की तीव्र आकांक्षा है।
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मैं कबीर पर बोला, फरीद पर बोला, नानक पर बोला, बुद्ध, महावीर और सैकड़ों मुक्त पुरुषों पर बोला, वह बात इकसुरी थी। आज दूसरे स्वर को जोड़ता हूं। उस दूसरे स्वर को समझने के लिए, उस पहले स्वर ने तुम्हें तैयार किया है। क्योंकि एक बड़ी अनूठी घटना घटती है: पुरुष भी जब मुक्ति के आखिरी सोपान पर पहुंचता है, तो स्त्री जैसा हो जाता है, स्त्रीवत हो जाता है।
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यही तो दादू ने कहा, कि आशिक माशूक हो गया। जो प्रेमी था, अब प्रेयसी हो गया। और फरीद अपने से ही कहता है कि बहन, अगर तू ऐसा कर कि उस एक सच्चे की ही आस मुझमें रह जाए, तो प्यारा बहुत दूर नहीं है।
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अगर तुम बुद्ध के जीवन को समझो, तो तुम बुद्ध के जीवन में वैसी स्त्रैणता पाओगे जैसी श्रेष्ठतम स्त्री में कभी-कभी उपलब्ध होती है–वही सुकोमल भाव पाओगे। कहो उसे करुणा, लेकिन अगर गहरे में झांक कर देखोगे तो पाओगे, वह करुणा बुद्ध के भीतर जनम रही नयी स्त्री का अनुसंग है, छाया है। 
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महावीर में तुम उसे अहिंसा की तरह पाओगे। लेकिन जब भी कोई पुरुष मुक्त होगा तो अचानक तुम पाओगे उसके जीवन में बड़ा स्त्रैण माधुर्य आ गया। ये सभी गुण जिनकी फरीद ने चर्चा की–धीरज, शील–ये सभी गुण स्त्रैण हैं। शीतल गुण है, बहुत सुकोमल है। और धीरता–धैर्य–स्त्रैण गुण है।
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पुरुष में धैर्य नहीं है। पुरुष बड़ा अधीर है, सदा जल्दी में है। अगर पुरुष को बच्चे पालने पड़े तो संसार में बच्चे नहीं बचेंगे–उतना धैर्य नहीं है। अगर पुरुष को गर्भ संभालना पड़े तो गर्भपात ही गर्भपात हो जाएंगे संसार में; कोई पुरुष गर्भ संभालने को राजी न होगा–नौ महीने की प्रतीक्षा किसे हो सकती है; पुरुष जल्दी में है, तेजी में है। समय का उस बड़ा बोध है। स्त्री अनंत में जीती है, पुरुष समय में जीता है–
~ ओशो ~
~ बिन घन परत फुहार ~

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