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*वास निरन्तर सो समझाइ,*
*बिन नैनहुँ देखूँ तहाँ जाइ ॥*
*दादू रे यहु अगम अपार,*
*सो धन मेरे अधर अधार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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सभी संत अधर में ही हैं - ओशो
आलमगीर नाम का बादशाह मलूक के दर्शन को आया, तो चकित रह गया। जो उसने देखा, उसे अपनी आंखों पर भरोसा न आया। आंखें मींड़ कर देखा, फिर भी बात जैसी थी वैसी ही थी। उसने क्या देखा कि मलूकदास अधर में लटक रहे हैं, नाच रहे हैं, गीत गा रहे हैं ! उनके पैर नहीं छूते ।
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अधर में ! निश्चित ही हम तो कहेंगे, हो गया चमत्कार ! लेकिन सभी संत अधर में हैं। किस संत के पैर जमीन को छूते हैं ? जो जमीन के आकर्षण से मुक्त हो गया, वह जमीन के गुरुत्वाकर्षण से भी मुक्त हो गया। ऐसे आंखों से देखोगे चमड़े की, तो जमीन को छू ते हुए मालूम पड़ते हैं, मगर किसी संत के पैर जमीन को नहीं छूते हैं।
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झेन फकीर रिंझाई अपने शिष्यों को कहता था कि देखो, एक बात याद रखनाः पानी में चलना तो जरूर मगर याद रहे-पानी पैर को न छुए ! शिष्यों ने बहुत बार जाकर गांव के बाहर नदी में चलकर देखा, क्या करें, पानी छूता था ! बहुत ध्यान करते, झाडों के नीचे बैठते, बुद्ध की तरह घंटों बैठे रहते, फिर उठते; फिर नदी में चलते, वह फिर पानी पैर को छू लेता।
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आखिर उन्होंने कहा, यह भी क्या शर्त लगा दी ! पानी है तो पैर को छुएगा ही। और जब नदी में से निकलोगे तो पैर को छुएगा नहीं तो कैसे तुम बचोगे ? लेकिन जव भी वे जाते तो रिझाई पूछता : क्या हुआ ? याद रखना, पैर चलें तो पानी से जरूर, मगर पानी पैर को छुए न ! तभी समजूंगा कि ध्यान हुआ। शिष्य तो थक गए कि यह बात तो पूरी होनेवाली नहीं है और यह ऐसी शर्त लगा दी है कि ध्यान भी पूरा होनेवाला नहीं।
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फिर एक बार यात्रा को जाते थे, संयोग से रास्ते में नदी पड़ी। शिष्य बड़े खुश हुए कि आज पक्का पता चल जाएगा कि रिंझाई के पैर पानी को छूते कि नहीं ! रिंझाई तो मजे से उतरा पानी में, डट कर पानी ने छुआ । शिष्य तो बीच ही नदी में खड़े हो गए कि रुकिए, महाराज ! हमारी जान लिए लेते हैं, आपके खुद के पैर पानी छू रहे हैं !
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रिंझाई ने कहा : कहां ? मेरे पैर पानी नहीं छू रहे हैं, न पानी मेरे पैरों को छू रहा है। ज़रा गौर से देखो! ज़रा मुझे देखो ! तुम पानी देख रहे हो, मुझे नहीं देख रहे। ऐसे तो पैर जमीन को छुएंगे। बुद्ध चलें कि जीसस चलें कि मलूकदास कि कवीर कि नानक, ऐसे तो पैर जमीन को छुएंगे।
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लेकिन तुमसे मैं कहता हूं : अगर संतों को पहचानोगे, तो नहीं छूते, नहीं छुएंगे। नहीं छू सकते हैं। क्योंकि संत गुरुत्वाकर्षण से मुक्त हो गया। अव जमीन का उसे कोई आकर्षण नहीं है। मिट्टी का उसे कोई मोह नहीं। जिसने अपनी देह से तादात्म्य छोड़ दिया, जिसने जान लिया कि मैं देह नहीं हूं, उस ने जान लिया कि मैं मिट्टी नहीं हूं। बस, यही अर्थ है अधर में हो जाने का।
ओशो
सत्य और अकेलापन ।
ओशो
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