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*सुरति सदा सन्मुख रहै, जहाँ तहाँ लै लीन ।*
*सहज रूप सुमिरण करै, निष्कामी दादू दीन ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अब मुसलमान सोच ही नहीं सकते कि नानक में भी कोई समझ हो सकती है। वे मर्दाना को बगल में लिए गांव-गांव गीत गाते फिरते हैं। संगीत की दुश्मनी है इस्लाम में। मस्जिद में संगीत प्रवेश नहीं कर सकता। मस्जिद के सामने से नहीं निकल सकता। और यह आदमी मर्दाना को लिए हुए--और जगह-जगह। मर्दाना मुसलमान था जो नानक के साथ साज बजाता था तो मुसलमानों ने उसको भी डिसओन कर दिया क्योंकि यह आदमी कैसा है ! मुसलमान हो ही नहीं सकता। संगीत से तो दुश्मनी है।
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मुहम्मद के लिए संगीत में कोई रस न रहा होगा। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। यह भी हो सकता है कि मुहम्मद को संगीत के माध्यम से निम्न वासनाएं जगती हुई मालूम हुई होंगी और उन्होंने इनकार कर दिया। लेकिन सभी को ऐसा होता है, यह जरूरी नहीं है। किन्हीं के भीतर संगीत से श्रेष्ठतम का जन्म होना शुरू होता है।
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तो मुहम्मद का अपना अनुभव आधार बनेगा। मुहम्मद को सुगंध बहुत पसंद थी। इसलिए मुसलमान अभी भी ईद के दिन बेचारे इत्र एक दूसरे को लगाते देखेंगे। अभी भी सुगंध से मुसलमानों को प्रेम है। वह प्रेम सिर्फ परंपरा है। मुहम्मद को बहुत पसंद है। असल में मुहम्मद, ऐसा मालूम पड़ता है कि सुगंध मुहम्मद को वहीं ले जाती थी, जहां कुछ लोगों को संगीत ले जाता है। सुगंध भी एक इंद्रिय है; जैसा संगीत कान का रस है, वैसे सुगंध नाक का रस है। लेकिन मालूम होता है कि मुहम्मद सुगंध से बड़ी ऊंचाइयों पर उड़ जाते थे। और उनके लिए सुगंध का कोई एसोसिएशन गहरा बन गया होगा।
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सम्भव है, जब पहली दफा उन्हें इलहाम हुआ, जब उन्हें पहली दफा प्रभु की प्रतीति हुई, या प्रभु का संदेश उतरा तब पहाड़ के आसपास फूल खिले होंगे। सुगंध उसके साथ जुड़ गयी होगी। जरूर कोई ऐसी घटना--फिर सुगंध उनके लिए द्वार बन गयी। जब वे सुगंध में होंगे, तब वह द्वार खुल जाएगा।
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लेकिन यही बात संगीत में हो सकती है, लेकिन यही बात नृत्य में हो सकती है, यही बात अनेक-अनेक रूपों में हो सकती है, पर, मुहम्मद हों तो शायद समझ भी जाएं, मुहम्मद तो हैं नहीं, वह तो पीछे चलनेवाला आदमी है, वह कहता है कि संगीत नहीं बजने देंगे, क्योंकि संगीत इनकार है।
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तो फिर नानक को मुसलमान कैसे स्वीकार करें ? हिंदू भी स्वीकार नहीं कर सकते नानक को। क्योंकि नानक गृहस्थ हैं। वे संन्यासी नहीं हैं। पत्नी है, घर है, कपड़े भी वे साधारण पहनते हैं--गृहस्थ। गृहस्थ को हिंदू कैसे स्वीकार करें ? ज्ञानी तो संन्यासी होता है।
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फिर नानक और भी गड़बड़ करते हैं। सभी जाननेवाले लोग एक अर्थ में डिस्ट्रबिंग होते हैं, क्योंकि पुरानी सब व्यवस्था से वे फिर नए होते हैं। वे गड़बड़ यह करते हैं कि वे काबा भी चले जाते हैं, वे मस्जिद में भी ठहर जाते हैं। तो हिंदू कैसे मानें कि जो आदमी मस्जिद में भी ठहर जाता है, वह आदमी धार्मिक हो सकता है ! मंदिर में ही ठहरना चाहिए।
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जो विनय श्रेष्ठ की किन्हीं धारणाओं को मानकर चलती है वह सिर्फ अंधी होगी, परंपरागत होगी, रूढ़िगत होगी,वह क्रांतिकारी नहीं होती है। उससे अंतर-आविर्भाव नहीं होता है। अंतर-आविर्भाव जब होता है तो आदर सहज होता है--वह पत्थर के प्रति भी होता है, पौधे के प्रति भी होता है, अस्तित्व के प्रति भी होता है। इससे कोई संबंध नहीं कि वह कौन है और क्या है, कोई शर्त नहीं है। वह है, बस इतना काफी है।
-ओशो - महावीर वाणी(भाग--1) प्रवचन--15
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