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*न तहाँ चुप ना बोलणां, मैं तैं नांहीं कोइ ।*
*दादू आपा पर नहीं, न तहाँ एक न दोइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जनक ने पूछा, ‘कथं मुक्ति ? कैसे होती मुक्ति ? क्या है मुक्ति ? उस ज्ञान को मुझे समझायें, जो मुक्त कर देता है।’
पूछा जनक ने, ‘कैसे होगी मुक्ति और कैसे होगा वैराग्य ? हे प्रभु, मुझे समझा कर कहिए !’ अष्टावक्र ने गौर से देखा होगा जनक की तरफ; क्योंकि गुरु के लिए वही पहला काम है कि जब कोई जिज्ञासा करे तो वह गौर से देखे. ‘जिज्ञासा किस स्रोत से आती है ? पूछने वाले ने क्यों पूछा है ?’ उत्तर तो तभी सार्थक हो सकता है जब प्रश्न क्यों किया गया है, वह समझ में आ जाये, वह साफ हो जाए।
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ध्यान रखना, सदज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति, सदगुरु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर नहीं देता—तुम्हें उत्तर देता है ! तुम क्या पूछते हो, इसकी फिक्र कम है; तुमने क्यों पूछा है, तुम्हारे पूछने के पीछे अंतरचेतन में छिपा हुआ जाल क्या है, तुम्हारे प्रश्नों की आड़ में वस्तुत: कौन—सी आकांक्षा छिपी है..!
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दुनियां में चार तरह के लोग हैं—ज्ञानी, मुमुक्षु, अज्ञानी, मूढ़। और दुनियां में चार ही तरह की जिज्ञासाए होती हैं। ज्ञानी की जिज्ञासा तो नि:शब्द होती है। कहना चाहिए, ज्ञानी की जिज्ञासा तो जिज्ञासा होती ही नहीं—जान लिया, जानने को कुछ बचा नहीं, पहुंच गये, चित्त निर्मल हुआ, शांत हुआ, घर लौट आये, विश्राम में आ गये ! तो ज्ञानी की जिज्ञासा तो जिज्ञासा जैसी होती ही नहीं।
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इसका यह अर्थ नहीं कि ज्ञानी सीखने को तैयार नहीं होता। ज्ञानी तो सरल, छोटे बच्चे की भांति हो जाता है—सदा तत्पर सीखने को।ज्ञान—ज्ञान को संगृहीत नहीं करता; ज्ञानी सिर्फ ज्ञान की क्षमता को उपलब्ध होता है। इस बात को ठीक से समझ लेना, क्योंकि पीछे यह काम पड़ेगी। ज्ञानी का केवल इतना ही अर्थ है कि जो जानने के लिए बिलकुल खुला है; जिसका कोई पक्षपात नहीं, जानने के लिए जिसके पास कोई परदा नहीं; जिसके पास जानने के लिए कोई पूर्व—नियोजित योजना, ढांचा नहीं। ज्ञानी का अर्थ है ध्यानी जो ध्यान पूर्ण है।
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तो देखा होगा अष्टावक्र ने गौर से, जनक में झांक कर : यह व्यक्ति ज्ञानी तो नहीं है। यह ध्यान को तो उपलब्ध नहीं हुआ है। अन्यथा इसकी जिज्ञासा मौन होती; उसमें शब्द न होते।
आचार्य रजनीश "ओशो"
"अष्टावक्र महागीता(भाग-११,प्रवचन-१)"
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