रविवार, 28 जुलाई 2024

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*🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷*
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*समाचार सत पीव का, कोइ साधु कहेगा आइ ।*
*दादू शीतल आत्मा, सुख में रहे समाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#नानक नदी के किनारे रात के अंधेरे में, अपने साथी और सेवक मरदाना के साथ वे नदी के तट पर बैठे थे। अचानक उन्होंने वस्त्र उतार दिये। बिना कुछ कहे वे नदी में उतर गए। मरदाना पूछता भी रहा, क्या करते हैं ? रात ठंडी है, अंधेरी है ! दूर नदी में वे चले गए। मरदाना पीछे-पीछे गया। नानक ने डुबकी लगाई। मरदाना सोचता था कि क्षण-दो-क्षण में बाहर आ जाएंगे।
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फिर वे बाहर नहीं आए। दस-पांच मिनट तो मरदाना ने राह देखी, फिर वह खोजने लगा गया कि वे कहां खो गए। फिर वह चिल्लाने लगा। फिर वह किनारे-किनारे दौड़ाने लगा कि कहां हो ? बोलो, आवाज दो ! ऐसा उसे लगा कि नदी की लहर-लहर से एक आवाज आने लगी, धीरज रखो, धीरज रखो। पर नानक की कोई खबर नहीं।
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वह भागा गांव गया, आधी रात लोगों को जगा दिया। भीड़ इकट्ठी हो गई। नानक को सभी लोग प्यार करते थे। सभी को नानक में दिखाई पड़ती थी कुछ होने की संभावना। नानक की मौजूदगी में सभी को सुगंध प्रतीत होती थी। फूल अभी खिला नहीं था, पर कली भी तो गंध देती है! सारा गांव रोने लगा, भीड़ इकट्ठी हो गई। सारी नदी तलाश डाली। इस कोने से उस कोने लोग भागने-दौड़ने लगे। लेकिन कोई पता न चला।
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तीन दिन बीत गये। लोगों ने मान ही लिया कि नानक को कोई जानवर खा गया। डूब गए, बह गए, किसी खाई-खड्ड में उलझ गए। मान ही लिया कि मर गए। रोना-पीटना हो गया। घर के लोगों ने भी समझ लिया कि अब लौटने का कोई उपाय न रहा। और तीसरे दिन रात अचानक नानक नदी से प्रकट हो गये। जब वे नदी से प्रकट हुए जपुजी उनका पहला वचन है। यह घोषणा उन्होंने की।
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कहानी ऐसी है--कहता हूं, कहानी। कहानी का मतलब होता है, जो सच भी है, और सच नहीं भी। सच इसलिए है कि वह खबर देती है सचाई की; और सच इसलिए नहीं है कि वह कहानी है और प्रतीकों में खबर देती है। और जितनी गहरी बात कहनी हो, उतनी ही प्रतीकों की खोज करनी पड़ती है।
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नानक जब तीन दिन के लिए खो गए नदी में तो कहानी है कि वे प्रकट हुए परमात्मा के द्वार में। ईश्वर का उन्हें अनुभव हुआ। जाना आंखों के सामने प्यारे को, जिसके लिए पुकारते थे। जिसके लिए गीत गाते थे, जो उनके हृदय की धड़कन-धड़कन में प्यास बना था। उसे सामने पाया। तृप्त हुए। और परमात्मा ने कहा, अब तू जा। और मैंने जो तुझे दिया है, वह लोगों को बांट। जपुजी उनकी पहली भेंट है परमात्मा से लौट कर।
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यह कहानी है। इसके प्रतीकों को समझ लें। एक, कि जब तक तुम न खो जाओ, जब तक तुम न मर जाओ तब तक परमात्मा से कोई साक्षात्कार न होगा। नदी में खोओ कि पहाड़ में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन तुम नहीं बचने चाहिए। तुम्हारा खो जाना ही उसका होना है। तुम जब तक हो तभी तक वह न हो पाएगा। तुम ही अड़चन हो। तुम ही दीवाल हो। यह जो नदी में खो जाने की कहानी है...।
ओशो; एक ओंकार सतनाम--प्रवचन-01

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