बुधवार, 3 जुलाई 2024

रमइयौ कहिनैं कदि मिलै

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू इस हियड़े ये साल,*
*पीव बिन क्योंहि न जाइसी ।*
*जब देखूँ मेरा लाल,*
*तब रोम रोम सुख आइसी ॥*
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*विरह ॥*
रमइयौ कहिनैं कदि मिलै ।
सो म्हारी जीवनि प्राण अधार,
जिहिं की मोनैं ओलू आवै बारंबार ॥टेक॥
जोइ नैं रूड़ौ जोइसी, रुडौ लगन बिचारि ।
कहि गोबिंद कदि आवसी, म्हारै आंगनड़ै पग धारि ॥
जिहि मिलियाँ आनंद होइ रे, बीछड़ियाँ बैराग ।
तिहिं मिलिबा कै कारणैं, हूँ ऊभी उडाउँलि काग ॥
ऊभाँ बैठाँ निरषताँ, म्हारा नैंन रह्या रतवाइ ।
हरि कौ मारग हेरताँ, रैंणि गई दिन जाइ ॥
पंथी बूझूँ पल गिणौं रे, ऊभी मारग जोइ ।
कोइ कहै हरि आवतौ, म्हारौ हियौ उरेरौ सौ होइ ॥
अणदीठौ औलू करै रे, मो मन बारंबार ।
ऊझलि फूटा क्यार ज्यूँ, म्हारा नैण न षंडै धार ॥
इहिं बेलाँ आयौ नहीं, म्हारा सहियौ संदेसौ ऊठि ।
हियौ पुराणी बाड़ि ज्यूँ, म्हारौ गयौ बिचाला थैं टूटि ॥
सषी सहेली देहिंली रे, दाधा ऊपरि दाह ।
हौं न जाणौं क्यूँ ही रह्यौ, मो निगुणगारी कौ नाह ॥
किरपा करि आवौ हरी, जन अपणा सूँभाइ ।
लेस्यूँ लांबैं आँचलि बारणा, बषनौं बलिहारी जाइ ॥३॥
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मोनैं = मुझे । ओलू = याद, स्मृति । रूड़ौ = श्रेष्ठ, अच्छा । बैराग = विषाद, दुख । रतवाइ = लाल । उरेरौ = बिशाद के भार से भारी हुआ हृदय हल्का हो जाये; आनंदित हो जाये । अणदीठौ = बिना देखे । ऊझलि = टक्कर, पानी के तेज प्रवाह की टक्कर से । खंडै = खंडित होती हैं, रूकती है । सहियौ = सहन कर लिया; संदेशे पर कोई अमल नहीं किया । बाड़ि = डौली, मिट्टी की कच्ची दीवार । बिचाला = बीच में से, हृदय । देहिंली = देंगी । दाधा = दग्ध, संतप्त । दाह = दुःख, संताप; जले पर नमक = दुखी को और दुखी करना । क्यूँही = किस कारण से । सूँभाइ = स्वभाववश; ‘वे यथा मां प्रपद्यंते तांस्त्थैव भज्याम्पहम् ॥’ लांबै = पसार कर । वारणा = बलैया । बलिहारी = समर्पित होती है ।
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हे जोशीजी ! बताइये रमैया प्रियतम मुझे कब मिलेगा क्योंकि वह मेरा प्राणाधार, जीवनाधार है । उसकी याद मुझे बारबार आती है । हे श्रेष्ठ ज्योतिषी ! श्रेष्ठ लग्न विचार कर मुझे बता कि मेरे आंगन में गोविन्द कब साक्षात् पधारेंगे । जिसके मिलने से परमानन्द तथा बिछुड़ने से गहरा विषाद प्राप्त होता है उससे मिलने के लिये मैं खड़ी होकर कौवे को उड़ा दूंगी ।
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(जब घर के ऊपर बैठकर कौवा काँव-काँव करता है, तब घर के सदस्य कौवे से कहते हैं, यदि कोई मेहमान आने वाला है तो तू उड़ जा । जब कौवा उड़ जाता है तो माना माना जाता है कि आज कोई न कोई आने वाला है । कौवे का बोलना किसी के आगमन की सूचना देता है ।)
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मैं प्रियतम के आगमन की प्रतीक्षा इतनी आतुरता से कर रही हूँ कि कभी खड़ी होकर तथा कभी बैठकर उसको देखती हूँ कि वह कहाँ से किस ओर से आ रहा है । इस कारण मेरे नेत्र लाल हो गये हैं । हरि प्रियतम का मार्ग देखते-देखते रात्रि चली जाती है फिर दिन चला जाता है । इन रात-दिनों के जाने का क्रम अनवरत चल रहा है ।
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राहगीर से पूछती हूँ कि क्या मेरा प्रियतम भी आ रहा है । मैं व्यतीत होने वाले प्रत्येक पल को गिनती हूँ कि अब तक इतने पल बीत गये हैं । मैं प्रत्येक से यह उम्मीद करती हूँ कि कोई तो मुझसे आकर कहे कि मेरा प्रियतम आ रहा है जिससे मेरा हृदय आनन्दमग्न हो जाये ।
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उस प्रियतम के न दीखने पर मेरा मन बारबार उसको याद करता है । मेरे नेत्रों से उसके लिये अखंडित अश्रुधारा ठीक उसी प्रकार प्रवाहित होती रहती है जैसे खेत की क्यारी की डौली पानी के प्रबल प्रवाह से टूट जाती है और कुवे से आने वाला पानी अनवरत चारों ओर बिखरता रहता है । मैंने उसको संदेशा भेजा ।
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उसने उस सन्देश को उठकर = आदर सहित तो सुना किन्तु उस पर उसके कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, वह मेरी इस प्रबल विरहावस्था में भी मेरे पास नहीं आया । उसके इस निष्ठुर व्यवहार के कारण मेरा हृदय बीच में से = मर्मस्थान ठीक उसी प्रकार फट गया जैसे खेते की मेड़ बीच में फटकर खेत को असुरक्षित कर देती है ।
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मेरे प्रियतम के निष्ठुर व्यवहार के कारण मेरी सखी सहेलियाँ मुझ विरहदग्धा को और अधिक दग्ध करेंगे; ताने देंगी कि तू तो तेरे प्रियतम के लिये मरती है किन्तु उसे तेरी परवाह तक नहीं है सच जानिये, मैं नहीं जानती कि मुझे अवगुणी का पति किस कारण वहाँ रह गया है ।
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हे हरि ! अपने स्वभाव = विरद = सुयश को याद करके अपने भक्त की पीड़ा को मिटाने के लिये कृपा करके पधारिये । आपके आने पर मैं अपने आँचल को लम्बा बिछाकर आपका स्वागत करूंगी । मैं अपने आपको आपके चरणों में न्यौछावर करती हूँ, समर्पित करती हूँ ॥३॥
(क्रमशः)

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