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*परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवै ।*
*मतवाला माता रहै, यों दादू जीवै ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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गुरु गरवा दादू मिल्या, दीर्घ दिल दरिया।
तत छन परसन होत हीं, भजन भाव भरिया॥
यह प्यारा वचन है। 'तत छन' ! एक क्षण में, नजर से नजर मिली और सब हो गया ! 'तत छन परसन होत हीं,'... दरस-परस होते ही, देखा गुरु को कि बात हो गयी।
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साहसी व्यक्ति रहा होगा रज्जब। लोग तो वर्षों सोचते हैं। विचार में ही गँवा देते हैं। बुद्ध मिल जाएँ, कि कृष्ण मिल जाएँ तो भी विचार में गँवा देते हैं। सोचते ही रहते हैं। संदेहों का अंत ही नहीं आता, प्रश्नों की समाप्ति नहीं होती। शायद सोचना एक बहाना होगा। शायद सोचना टालने की एक विधि होगी। शायद सोचने के नाम से स्थगन करते होंगे--कल, परसों, अभी नहीं। साहसी का अर्थ हैः जो जानता है, या तो अभी या कभी नहीं।
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'तत छन परसन होत हीं'...।
और जैसे ही दरस हुआ, परस हुआ, जैसे ही स्पर्श हुआ गुरु की तरंग का, जैसे ही गुरु का राग सुनायी पड़ा, जैसे ही उन आँखों ने रज्जब की आँखों में झाँका... 'भजन भाव भरिया'... उठ आयी कोई चीज जो सोयी पड़ी थी जन्मों-जन्मों से। फूटी कोई कली ! खिला कोई फूल! जो सितार कभी नहीं छुई गयी थी, बज उठी। 'भजन भाव भरिया' ! गुरु के पास बैठकर अगर भजन भाव न भरे, तो तुम पास बैठे ही नहीं। अगर गुरु के पास बैठकर डोले नहीं, तो तुम पास बैठे ही नहीं।
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गुरु के पास बैठे हो, इसका लक्षण क्या है ? कसौटी क्या है ? एक ही कसौटी है: 'भजन भाव भरिया'। तुम्हारे भाव में भजन उतर आए। तुम्हारे भीतर नाद जगे। तुम जीवन के उल्लास से भर जाओ। यह जो जीवन चारों तरफ न-मालूम कितने-कितने तरह की मधु ढाल रहा है, तुम इसे पी उठो ! तुम नाच उठो !
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तत छन परसन होत हीं'। यह 'परसन' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं--या तो परस, स्पर्श, या प्रसन्न। 'तत छन परसन होत हीं'... दोनों अर्थ सार्थक हैं। गुरु प्रसन्न क्या हुआ, 'भजन भाव भरिया'। शिष्य की तरफ से एक अर्थ कि परस हुआ। सौभाग्यशाली है शिष्य कि गुरु से आँख मिली, कि गुरु के हाथ में हाथ पड़ा, कि गुरु के वातावरण में बैठने का सुअवसर आया, कि थोड़ी देर को गुरु की तरंग में डोला। यह बजी बीन गुरु की और शिष्य नाचा एक नाग की भाँति ! यह परस शिष्य की तरफ से है।
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लेकिन जब भी कोई गुरु किसी शिष्य को नाग की भाँति फन उठाकर नाचते मस्त होते देखता है, स्वभावतः प्रसन्न होता है--एक फूल और खिला ! एक मंदिर और बना ! एक काबा और खोजा गया ! एक तीर्थ और उठा ! परमात्मा एक हृदय में और उतरा ! 'तत छन परसन होत हीं'... तो गुरु प्रसन्न न हो जाए तो क्या हो ? आह्लाद से भर जाता है, शिष्य को पाकर गुरु उतने ही आह्लाद से भर जाता है, जितना शिष्य गुरु को पाकर आह्लाद से भर जाता है। यह लपट दोनों तरफ साथ-साथ जगती है। यह धुन एक साथ उठती है।
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'तत छन परसन होत हीं, भजन भव भरिया॥' और गुरु प्रसन्न हो जाए और उसकी मुस्कुराहट तुम पर बरस उठे और उसका आनंद तुम पर ढल जाए, तो क्या होगा ?--'भजन भाव भरिया' ! तुम्हारे भीतर भाव तो पड़ा ही था जन्मों-जन्मों से, कोई ठीक-ठीक वसंत का अवसर न मिला था; बीज तो पड़ा था, भूमि न मिली थी; आज भूमि मिल गयी। आज वसंत आ गया। ऋतु आ गयी। टूटेगा बीज, पौधा उठेगा। हरे पत्ते निकलेंगे। सुर्ख फूल खिलेंगे।
'भजन भाव भारी' !
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