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*प्राण हमारा पीव सौं, यों लागा सहिये ।*
*पुहुप वास घृत दूध में, अब कासौं कहिये ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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जब उस परम प्यारे के सौंदर्य से आंखें भरती हैं, तो यह भी याद नहीं पड़ता कि क्या मैं देख रहा हूं ! क्या घट रहा है ! कहां का हुस्न कि खुद इश्क को खबर न हुई...
ऐसी बेहोशी तैयार हो जाती है, ऐसा उन्माद छा जाता है, ऐसा मस्त हो जाता है मन !
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कहां का हुस्न कि खुद इश्क को खबर न हुई
रहेत्तलब में कुछ ऐसे भी इम्तिहां गुजरे
उस प्यारे की खोज में, उस प्यारे की राह में ऐसे भी क्षण आते हैं, जब पता ही नहीं चलता अपना, न उसका। पता ही मिट जाता है, ज्ञान ही खो जाता है।
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प्रेम की पराकाष्ठा तभी है, जब ज्ञान बिलकुल शून्य हो जाए–न दृश्य रहे, न द्रष्टा रह जाए; न ज्ञाता, न ज्ञानी। वहीं मिलन है, वहीं व्यक्ति परमात्मा से एक होता है। वहीं बूंद सागर से मिलती है। प्रेम का रास्ता प्यारा भी बहुत, क्योंकि प्रेम का रास्ता है। प्रेम से ज्यादा मधुर इस संसार में कुछ और नहीं, उससे ज्यादा सुस्वादु इस संसार में कुछ और नहीं। प्रेम तो मधुशाला है, मादक है, मधु है। लेकिन प्रेम को पीने की तैयारी अति कठिन है।
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रहीम का वचन है: प्रेम-पंथ ऐसो कठिन ! कैसो कठिन ? क्या कठिनाई होगी प्रेम-पंथ की ? कठिनाई यह है कि प्रेमी को मिटना पड़ता है, तब प्यारा मिलता है। मिलता है तब तो बड़ा ही अपूर्व है, मगर मिलने के पहले जो शर्त पूरी करनी पड़ती है, बड़ी दुर्गम है।
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वाजिद के आज के सूत्र विरह की रात्रि के सूत्र हैं। खूब मनपूर्वक उन्हें समझना।
पीव बस्या परदेस कि जोगन मैं भई।
उनमनि मुद्रा धार फकीरी मैं लई॥
ढूंढया सब संसार कि अलख जगाइया।
हरि हां, वाजिद, वह सूरत वह पीव कहूं नहिं पाइया॥
पीव बस्या परदेस कि जोगन मैं भई।
प्यारा बहुत दूर, यह भी ठीक पता नहीं कि कहां ? प्यारा बहुत दूर, यह भी ठीक पता नहीं कि कौन ? प्यारा बहुत दूर, यह भी पता नहीं उसका रूप क्या, रंग क्या, नाम क्या, धाम क्या ? प्यारा बहुत दूर, यह भी पता नहीं कि है भी या नहीं है।
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भक्त की पीड़ा ! प्यारे का होना भी अभी प्रमाणित नहीं है। सरोवर होगा भी कहीं, इसका कोई सबूत नहीं है। सबूत तो मिले कैसे, जब तक सरोवर न मिल जाए ! हां, और लोग कहते हैं–बुद्ध कहते हैं, महावीर कहते हैं, मीरा कहती है, चैतन्य कहते हैं–और लोग कहते हैं। पर औरों का कैसे भरोसा हो ? कौन जाने झूठ ही कहते हों !
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क्योंकि कहने वाले तो बहुत कम हैं, उंगलियों पर गिने जा सकें इतने हैं। और परमात्मा जिनको नहीं मिला है, वे तो अनंत हैं। परमात्मा जिनको नहीं मिला, उनकी तो बड़ी भीड़ है। जिनको मिला, वे तो बहुत कम हैं, इक्के-दुक्के कभी किसी को। कौन जाने झूठ ही कहते हों! और कौन जाने झूठ शायद न भी कहते हों, खुद ही धोखा खा गए हों ! किसी सपने को सच मान लिया हो, किसी मन की भ्रांति में उलझ गए हों, किसी विभ्रम के शिकार हो गए हों–कौन जाने ? कैसे भरोसा करो ?
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दूसरे पर भरोसा हो नहीं सकता। अपना अनुभव हो, तो ही श्रद्धा उमगती है। अपना अनुभव न हो तो विश्वास सब सांत्वनाएं हैं–थोथी, ऊपर-ऊपर, मन को समझाने को हैं, मान लेने की हैं। और मान लेने से कोई यात्रा नहीं होती।
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तुमने सुना है, सदा कहा गया है–विश्वास करो तो ज्ञान होगा। इससे बड़ी झूठी कोई और बात नहीं हो सकती। ज्ञान हो तो विश्वास होता है। विश्वास पहले नहीं; विश्वास परिणति है, निष्कर्ष है। बोध हो तो श्रद्धा का फूल लगता है। श्रद्धा पहले नहीं हो सकती। किसी तरह ठोंक-ठांक कर बिठा लोगे। क्या उसका मूल्य ? कैसी, क्या उसकी अर्थवत्ता ? भीतर तो संदेह जगता रहेगा। भीतर तो प्रश्न बना ही रहेगा। इसलिए तुम पृथ्वी पर इतने धार्मिक लोग देखते हो और फिर भी अधर्म के सिवाय पृथ्वी पर और क्या है !
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यह है दूरी परमात्मा से। उस प्रेमी की कठिनाई समझो, जिसे उसके प्रति प्रेम पैदा हो गया है जिसे देखा नहीं, उसके प्रति आकर्षण पैदा हो गया है जिसका कोई पता नहीं। पता हो तो भी मिलना सुनिश्चित कहां है ! मजनू को पता है लैला का, मिल कहां पाती है !
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मजनू की पीड़ा कुछ भी नहीं, कम से कम उसे पता तो है, कम से कम उस रास्ते पर तो खड़ा हो जाता है जहां से लैला गुजरती है। दूर से ही सही, झलक तो देख लेता है। मजनू की पीड़ा कुछ भी नहीं है भक्त की पीड़ा के मुकाबले। कहां है वह राह जहां भक्त खड़ा हो जाए ? कैसे खड़ा हो जाए ? कहां खड़ा हो जाए ? किस राह से उसका गुजरना होता है ? किस राह से निकलता है उसका स्वर्ण-रथ ? किस घड़ी में निकलता है उसका स्वर्ण-रथ। कुछ भी तो पता नहीं।
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मगर जिसका कोई पता नहीं, उसके प्रति भी प्रेम का जन्म हो सकता है। बड़ी छाती चाहिए इस प्रेम के लिए ! भोजन का पता न हो, भूख लग सकती है न ! तो प्रेमी का पता न हो, प्रेम पैदा हो सकता है। सरोवर का पता न हो, प्यास लग सकती है न ! मंजिल का पता न हो, यात्रा की आकांक्षा तो जग सकती है न ! अज्ञात की खोज पर निकलता है भक्त। उसका साहस अदम्य है; कहो, दुस्साहस है !
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जो लोग चांद पर जाते हैं, हम उनका बड़ा स्वागत करते हैं; दुस्साहस करते हैं वे ! लेकिन चांद पर जाने में कोई इतना दुस्साहस नहीं है। चांद है तो, दिखाई तो पड़ता है। फासला कितना ही हो, नापा जा सकता है। मगर परमात्मा और आदमी के बीच फासला ऐसा है कि नापने का कोई उपाय नहीं। परमात्मा दिखाई भी तो नहीं पड़ता। इस अदृश्य की यात्रा पर जो निकलता है उसकी छाती समझते हो ! उसकी हिम्मत, उसकी जोखम उठाने की…आग में कूद जाने की बात है !
तो ठीक ही कहते हैं रहीम: प्रेम-पंथ ऐसो कठिन !
ओशो
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