गुरुवार, 11 जुलाई 2024

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*दादू जब दिल मिली दयालु सौं,*
*तब अंतर कुछ नांहि ।*
*ज्यों पाला पाणी कों मिल्या,*
*त्यों हरिजन हरि मांहि ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अंधे लोगों की अंधी दुनिया है। अगर तुम्हें परमात्मा भी मिल जाए, तो भी वे परमात्मा से राजी न होंगे। वे तुमसे कुछ अंधेरे की बात पूछेंगे। वे तुमसे कुछ पूछेंगे, जिसको वे संपदा समझते हैं, वह मिला कि नहीं मिला। इस कारण इस देश की सरकार मुझे धार्मिक मानने को राजी नहीं है, और यहां जो घट रहा है यह धर्म नहीं है। 
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क्योंकि मस्ती, आनंद, यह कैसा धर्म ? धर्म के नाम पर तो लोगों की मस्ती खो जाती है। वे उदास हो जाते हैं, जराजीर्ण हो जाते हैं, सूख जाते हैं। मुस्कुराहट उनकी विलीन हो जाती है। जीवन का नृत्य सदा के लिए उनका साथ छोड़ देता है। जब वे मुर्दों की भांति बैठ जाते हैं, तब लोग उनको कहते हैं–ये धार्मिक व्यक्ति !
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मीत तुम्हारी चीत रहत है जीव कूं।
हरि हां, वाजिद, वो दिन कैसो होइ मिलौं हरि पीव कूं॥
वह दिन बड़ी मस्ती का दिन होगा। वह दिन बड़े आनंद का दिन होगा। गोरे ने ठीक कहा।
कहिए सुणिए राम और नहिं चित्त रे।
कहता हूं तो राम, सुनता हूं तो राम।
…और नहीं चित्त रे।
और कहीं मेरा ध्यान नहीं जाता।
हरि-चरणन को ध्यान सु धरिए नित्त रे॥
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और तुमसे भी मैं यही कहता हूं, वाजिद कहते हैं कि बस हरि के चरणों में ही चित्त को लगा दो…नित्त हरि के चरणों में लगा दो।
जीव विलंब्या पीव दुहाई राम की।
और वाजिद कहते हैं, मैं तो रम गया राम में। लेकिन यह भक्तों की सदा की घोषणा रही–दुहाई राम की। इसमें मेरी कोई पात्रता नहीं है, इसमें मेरा कोई गुण नहीं है। दुहाई राम की ! राम की कृपा ! मैं तो अपात्र था, मुझे छुआ और पात्र बना दिया। मैं तो मिट्टी था, मुझे देखा और अमृत कर दिया। 
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मैं तो लोहा था, आए पारस पत्थर की तरह, दिया दरस-परस, हो गया स्वर्ण ! दुहाई राम की ! भक्त कभी क्षण-भर को भी यह ख्याल नहीं लाता कि मेरे कारण जीवन में कुछ हो रहा है या हो सकता है। जो होता है उसकी अनुकंपा से होता है। उसकी अनुकंपा अपार है। मेरी अपात्रता अपार है, उसकी अनुकंपा अपार है। मेरा अंधेरा भयंकर है, मगर उसकी रोशनी कैसे भी अंधेरे को तोड़ने में समर्थ है।
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जीव विलंब्या पीव दुहाई राम की।
मैं अगर प्यारे में रम गया हूं तो दुहाई राम की !
हरि हां, सुख-संपति वाजिद कहो किस काम की॥
और अब न सुख में कोई मूल्य है, न संपत्ति में कोई मूल्य है। अब वे सारे सुख और संपत्तियां, आंखों की पट्टियां और गले की घंटियां हो गए! अब उनका कोई मूल्य नहीं है।
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तुमहि बिलोकत नैण भई हूं बावरी।
तुम्हें ही देखते-देखते एक पागलपन छा गया है, एक बेहोशी आ गई है।
तुमहि बिलोकत नैण भई हूं बावरी।
और जब तक तुम पागल ही न हो उठो देखते-देखते परमात्मा को, तब तक रुकना मत। पागल होना ही पूर्णता है। बावरा हो जाना ही पूर्ण आहुति है !
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न सोजे-गम को समझा और न दर्दे-दिल को पहचाना
कहां दुनिया ने हुस्नो-इश्क की महफिल को पहचाना
जिसने भक्त की पीड़ा को नहीं समझा, जिसने भक्त के रुदन को नहीं समझा, जिसने प्रेम की जलन को नहीं समझा, आग को नहीं समझा, उसने कुछ भी नहीं समझा।
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न सोजे-गम को समझा और न दर्दे-दिल को पहचाना
कहां दुनिया ने हुस्नो-इश्क की महफिल को पहचाना
इसलिए दुनिया हुस्न और इश्क की महफिल को नहीं पहचान पाती है। तुम भी हुस्न और इश्क की महफिल में बैठे हो, दुनिया तुम्हें नहीं पहचान पाएगी। मैं यहां दीवाने पैदा कर रहा हूं, दुनिया तुम्हें नहीं पहचान पाएगी। वे ही लोग पहुंचे हैं मंजिल तक, जो दीवाने हैं, पागल हैं ! इतने पागल हैं कि शास्त्र भी छोड़ दिए उन्होंने, शास्ता भी छोड़ दिए उन्होंने। पथ-प्रदर्शकों की भी न सुनी। चल पड़े अपने प्रेम की ज्योति से, अपने प्रेम की आग से ही चल पड़े।
ओशो





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