रविवार, 11 अगस्त 2024

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*मन मनसा का भाव है, अन्त फलेगा सोइ ।*
*जब दादू बाणक बण्या, तब आशय आसण होइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*ओशो*
राम की कथा तुमने सुनी है। राम जंगल गए हैं। झोपड़े के बाहर खड़े हैं, और देखा एक स्वर्णमृग ! वह कहानी तुमने सुनी है। लेकिन, शायद उस कहानी के प्राणों के साथ तुम्हारा कभी कोई संबंध न हुआ हो। स्वर्णमृग होते नहीं। कहीं सोने का कोई हिरण होता है ? लेकिन सीता पीछे पड़ गयी। वह राम से कहने लगी, मैं तो इसे लेकर रहूंगी।
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वह इतना आग्रह करने लगी कि राम ने कहा, अच्छा ! राम है तुम्हारे भीतर का साक्षीभाव, राम है तुम्हारी आत्मा। सीता है तुम्हारा मन। सीता ने कहा, नहीं, लाकर रहो। पीछे पड़ गयी। स्त्री ने हठ किया होगा। राम भी उसके मोह में पड़ गए और सोने के मृग को लेने चले गए। ऐसे ही सीता गंवायी। ऐसे ही सीता रावण के हाथ में पड़ गयी। ये तो जाल था।
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जो नहीं है उसे अगर तुम खोजने जाओगे, तो जो है वह खो जाएगा। इतना ही सार है उस कथा का। जो नहीं है उसे तुम खोजने जाओगे, तो जो है वह खो जाएगा। स्वर्णमृग तो न मिला, हाथ से सीता भी खो गयी। मोह मिरग काया बसै–वह मोह का हिरण भीतर बसा है, शरीर के रोएं-रोएं में बसा है। कैसे उबरै खेत–इससे पार कैसे होना होगा ? वह बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है, क्योंकि इसके भीतर पूरे जीवन का गणित छिपा है।
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जो बावै सोई चरै लगै न हरि सू हेत–कठिनाई यह है कि जो हम बोते हैं उसी को चरते हैं। जब उसी को हम चरते हैं, तो फिर हम उसी को बोने के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर उसे बोते हैं, फिर उसी को चरते हैं। तो जिसे हम बोते हैं, वह हमारे भीतर फिर आ जाते हैं भोजन से। फिर हम उसे बो देते हैं, फिर वह तैयार हो जाता है, फिर हम फसल काट लेते हैं–ऐसा कार्य-कारण की एक श्रृंखला बन जाती है। एक विसियस सर्कल, एक दुष्ट-चक्र बन जाता है।
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तुमने किसी को गाली दी। तुमने बोयी गाली, वह आदमी नाराज हुआ। वह क्रोध से भर गया, उसने तुम्हें दुगुने वजन से गाली दी। जो तुमने बोया, अब चरना पड़ेगा। अब क्या करोगे ? गाली दी तो गाली लेनी भी पड़ेगी। जब तुम गाली लोगे, फिर क्या करोगे ? तुम फिर उपाय करोगे कि और वजनी गाली दें। इसका अंत कहां होगा ? तुम क्रोध करोगे, क्रोध पाओगे। क्रोध पाओगे, और क्रोध करोगे। तुम लोभ करोगे, लोभ से भरोगे, लोभ बढ़ता चला जाएगा।
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मोह मिरग काया बसै, उबरै खेत–सहजो पूछती है, इससे पार कैसे होंगे इस युद्ध का अंत कैसे होगा ? क्योंकि इसके भीतर बड़ा गहरा जाल है–जो बावै सोई चरै। तो अनंतकाल में जो बोया है उसको चर रहे हैं। और चर-चर के फिर उसे बोने के योग्य होते चले जाते हैं। तो इस दुष्ट-चक्र को तोड़ेंगे कैसे ? यह श्रृंखला कहां से कटेगी ? हम इसके बाहर कैसे जाएंगे ? अगर यही चलता रहा–और चलता रहा है–लगै न हरि सूं हेत, तो हरि से हेत कैसे लगे ?
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हरि तो कभी बोया नहीं, कभी चरा भी नहीं तो वह बात तो आकाश में रह जाती है, उससे हमारा कोई संबंध नहीं जुड़ता। बोया हमने मोह, चरा हमने मोह। बोया हमने लोभ, चरा हमने लोभ। बोया हमने भय, चरा हमने भय। इससे तो हमारा संबंध है। संसार तो हमारे भीतर-बाहर हो रहा है। श्वास के साथ भीतर जाता है, श्वास के साथ बाहर जाता है। परमात्मा का स्मरण कहां होगा, जगह कहां खाली है।
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सहजो ने बड़ा गहरा सवाल उठाया है। इन सवालों को मैं असली सवाल कहता हूं। ईश्वर ने दुनियां बनायी या नहीं, यह तुम पागलों पर छोड़ दो। ये सवाल व्यर्थ हैं। दो कौड़ी के हैं। बनायी हो तो, न बनायी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ता। असली सवाल तो जीवन के हैं, जीवंत हैं !
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जो बावै सोई चरै, लगै न हरि सूं हेत–बड़ी मुसीबत है, सहजो कहती है, करें क्या ? बाहर जाने का रास्ता नहीं दिखायी पड़ता क्योंकि हम जो कर सकते हैं, वही गलत है। और, गलत करके हमारा गलत होना और भी मजबूत होता है; फिर हम गलत करते हैं, फिर हम और गलत करने को राजी हो गए, कुशल हो गए। ऐसे ही जीवन कथा चली जाती है। इसमें से कहां से छलांग लगे ? इसमें हम कहां से बाहर आए ?
ओशो
बिन घन परत फुहार

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