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*अनतैं मन निवारिया रे, मोहि एकै सेती काज ।*
*अनत गये दुख ऊपजै, मोहि एकै सेती राज रे ॥*
*साँई सौं सहजैं रमूँ रे, और नहीं आन देव ।*
*तहाँ मन विलंबिया, जहाँ अलख अभेव रे ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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श्रीरामकृष्ण पंचवर्षीय बालक की तरह दिगम्बर होकर भक्तों के बीच में बैठे हुए हैं । ठीक इसी समय पगली जीने से ऊपर चढ़कर कमरे के द्वार के पास आकर खड़ी हो गयी ।
मणि - (शशि से, धीरे-धीरे) - नमस्कार करके जाने के लिए कहो, कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है ।
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शशि ने पगली को नीचे उतारकर दिया । आज नये वर्ष का पहला दिन है । बहुतसी भक्त स्त्रियाँ आयी हुई हैं । उन्होंने श्रीरामकृष्ण और माताजी को प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण किया । श्रीयुत बलराम की स्त्री, मणिमोहन की स्त्री, बागबाजार की ब्राह्मणी तथा अन्य बहुत सी स्त्रियाँ आयी हुई हैं ।
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वे सब की सब श्रीरामकृष्ण को प्रणाम करने के लिए ऊपरवाले कमरे में गयीं । किसी किसी ने श्रीरामकृष्ण के पादपद्मों में अबीर और पुष्प चढ़ाये । भक्तों की दो लड़कियाँ - नौ-नौ दस-दस साल की - श्रीरामकृष्ण को गाना सुना रही हैं ।
लड़कियों ने दो-तीन गाने सुनाये । श्रीरामकृष्ण ने संकेत द्वारा उन्हें बधाई दी ।
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ब्राह्मणी का स्वभाव बच्चों जैसा है । श्रीरामकृष्ण हँसकर राखाल की ओर संकेत कर रहे हैं । तात्पर्य यह कि वह उसे भी कुछ गाने के लिए कहे । ब्राह्मणी गा रही हैं ।
गाना - हे कृष्ण, आज तुम्हारे साथ खेलने को जी चाहता है, आज तुम मधुवन में अकेले मिल गये हो ।....
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स्त्रियाँ ऊपरवाले कमरे से नीचे चली आयीं । दिन का पिछला पहर है । श्रीरामकृष्ण के पास मणि तथा दो-एक और भक्त बैठे हुए हैं । नरेन्द्र भी कमरे में आये । श्रीरामकृष्ण ठीक ही कहते हैं कि नरेन्द्र मानो म्यान से तलवार निकालकर घूम रहा है ।
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*संन्यासी के कठिन नियम तथा नरेन्द्र*
नरेन्द्र श्रीरामकृष्ण के पास आकर बैठे । श्रीरामकृष्ण को सुनाकर स्त्रियों के सम्बन्ध में नरेन्द्र बहुत ही विरक्ति-भाव प्रकाशित कर रहे हैं । कहते हैं, 'स्त्रियों के साथ रहकर ईश्वर की प्राप्ति में घोर विघ्न है ।'
श्रीरामकृष्ण कुछ कहते नहीं, केवल सुन रहे हैं ।
नरेन्द्र फिर कह रहे हैं, 'मैं शान्ति चाहता हूँ, मैं ईश्वर को भी नहीं चाहता ।'
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श्रीरामकृष्ण एकदृष्टि से नरेन्द्र को देख रहे हैं । मुख में कोई शब्द नहीं है । नरेन्द्र बीच बीच में स्वर के साथ कह रहे हैं, 'सत्यं ज्ञानमनन्तम् ।'
रात के आठ बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण छोटे तखत पर बैठे हुए हैं । सामने दो-एक भक्त भी बैठे हैं । ऑफिस का काम समाप्त करके सुरेन्द्र श्रीरामकृष्ण को देखने के लिए आये हैं । हाथ में चार सन्तरे हैं और फूल की दो मालाएँ । सुरेन्द्र एक-एक बार भक्तों की ओर तथा एक-एक बार श्रीरामकृष्ण की ओर देख रहे हैं, और अपने हृदय की सारी बातें कहते जा रहे हैं ।
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सुरेन्द्र - (मणि आदि की ओर देखकर) - ऑफिस का कुल काम समाप्त करके आया । मैंने सोचा, दो नावों पर पैर रखकर क्या होगा ? अतएव काम समाप्त करके जाना ही ठीक है । आज एक तो पहला वैशाख है, दूसरे, मंगल का दिन । कालीघाट जाना नहीं हुआ । मैंने सोचा, काली की चिन्ता करके स्वयं ही जो काली बन गये हैं, अब चलकर उन्हीं के दर्शन करूँ; इसी से हो जायगा ।
श्रीरामकृष्ण मुस्करा रहे हैं ।
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सुरेन्द्र - मैंने सुना है, गुरु और साधु के दर्शन करने के लिए कोई जाय तो उसे कुछ फल-फूल लेकर जाना चाहिए । इसीलिए फल-फूल मैं ले आया । (श्रीरामकृष्ण से) आपके लिए यह सब खर्च, - ईश्वर ही मेरा मन जानते हैं । किसी को एक पैसा खर्च करते हुए भी कष्ट होता है, पर कुछ लोग लाखों रुपये बिना किसी हिचकिचाहट के खर्च कर डालते हैं । ईश्वर तो हृदय की भक्ति देखते हैं, तब ग्रहण करते हैं ।
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श्रीरामकृष्ण सिर हिलाकर संकेत कर रहे हैं कि तुमने ठीक ही कहा । सुरेन्द्र फिर कह रहे हैं – “कल संक्रांन्ति थी, मैं यहाँ तो नहीं आ सका, परन्तु घर में फूलों से आपके चित्र को खूब सुसज्जित किया ।"
श्रीरामकृष्ण सुरेन्द्र की भक्ति की बात मणि को संकेत करके सूचित कर रहे हैं ।
सुरेन्द्र - आते हुए ये दो मालाएं ले लीं, चार आने की ।
अधिकांश भक्त चले गये । श्रीरामकृष्ण मणि से पैरों पर हाथ फेरने और पंखा झलने के लिए कह रहे हैं ।
(क्रमशः)
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