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*दादू तिस सरवर के तीर, संगी सबै सुहावणे ।*
*तहाँ बिन कर बाजै बैन, जिभ्या हीणे गावणे ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*हाथ गहाय चले तरु के तरि,*
*जोर छुड़ात न छोड़त नीको१ ।*
*जोर कहै नहिं वोउ२ हरै कर,*
*लेत छुडाय न छूटत हीको४ ॥*
*यूं करि आय लियो सु वृन्दावन,*
*पीत रसै जग लागत फीको ।*
*लाल विहारि हु आय मिले,*
*मुरली बजई यह भावत जीको ॥४१६॥*
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करुणा सागर, भक्तवत्सल श्रीकृष्ण ने आपका हाथ पकड़ कर एक घने वृक्ष की छाया में बैठाया । फिर अपना हाथ छुड़ाने लगे तो विल्वमंगल छोड़ते नहीं थे । कारण-वह आपको अति प्रिय१ लग रहा था ।
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भगवान् हाथ छुड़ाने के लिये बल से खींचते थे; किन्तु विल्वमंगल२ जी हाथ छोड़ते नहीं थे । परन्तु अंत में भगवान् अपना हाथ छुड़ा कर अलग हो गये । तब विल्वमंगलजी ने कहा- "हाथों में से तो निकल गये किन्तु हृदय३ से तो आप नहीं निकल सकेंगे ।"
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इस प्रकार प्रभु की सहायता से वृन्दावन में आकर वृन्दावन की कुञ्ज में रहने लगे । अब आपको जगत् नीरस लगने लग गया । सब ओर से मनोवृत्ति रोक कर भगवद् प्रेम रूप रस का ही पान करने लगे ।
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कृपा करके श्रीविहारीलालजी आपके पास आकर आपसे मिले और वंशी की मधुर तान सुना कर, इनको प्रिय लगने वाला यह मनोरथ भी पूर्ण कर दिया ॥
(क्रमशः)
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