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*काल कर्म जीव ऊपजै, माया मन घट श्वास ।*
*तहँ रहता रमता राम है, सहज शून्य सब पास ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#लाओत्से के पास कोई आता था साधना के लिए, तो लाओत्से कहता था कि एक सप्ताह मेरे पास रूक जाओ, जरा मैं देख तो लूं कि तुम कैसी श्वास लेते हो, कैसी श्वांस छोड़ते हो। खोजी आया हो, अगर ज्ञानी हो, तो हैरान होगा कि ब्रह्मज्ञान लेने आए, सत्य का पता लगाने आए और यह आदमी कह रहा है कैसी श्वास लेते हो, कैसी छोड़ते हो।
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सात दिन लाओत्से देखेगा उस आदमी को अनेक हालतों में--सोते में, जागते में, काम करते, चलते वक्त, क्रोध में, प्रेम में--और देखेगा, उसकी श्वास की व्यवस्था क्या है। और जब तक वह श्वास की व्यवस्था न समझ ले, तब तक साधना का कोई सूत्र न देगा। श्वास के साथ ही साधना पूरी की पूरी व्यवस्थित की जा सकती है।
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तो लाओत्से के इस सूत्र को साधना का सूत्र समझें। अपनी श्वास का ध्यान रखें और श्वास के रूपांतरण की कोशिश करें। श्वास की बदलाहट आपकी बदलाहट हो जाएगी। श्वास में क्रांति आपके स्वयं के व्यक्तित्व की क्रान्ति हो जाएगी। और जैसे-जैसे श्वास गहरी होने लगेगी, आपकी गहराई बढ़ने लगेगी, आपका उथलापन समाप्त हो जाएगा। और जिस दिन श्वास केंद्र पर होगी, उस दिन आप सारे जगत के साथ एक अद्वैत के बिंदु पर मिल जाएंगे।
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अपने केंद्र पर जो आ गया, वह जगत के केंद्र पर आ जाता है। स्वंय के केंद्र पर जो डूब गया, वह विराट के केंद्र से एक हो जाता है। और जैसे-जैसे आपकी श्वास गहरी और भीतर-भीतर उतरने लगती है, वैसे-वैसे रहस्य के नए पर्दे और सत्य के नए द्वार खुलने शुरू हो जाते हैं। जो मनुष्य के भीतर छिपा है, वही विराठ में विस्तीर्ण होकर फैल हुआ है। जो अपने भीतर गहरे उतर आता है, वह परम के भीतर ऊंचा उठ जाता है।
ओशो, ताओ उपनिषद
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