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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*दादू कर सांई की चाकरी, ये हरि नाम न छोड़ ।*
*जाना है उस देश को, प्रीति पिया सौं जोड़ ॥*
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*मन-उपदेश*
सुणी मन मोरा रे, हरि स्यूँ हेत लगाइ ।
तूँ जिनि जाइ जनम ठगाइ, सुणी मन मोरा रे ॥टेक॥
साम्हैं पाणी मछ चढ़ै रे, यौं तूँ चढ्यौ जंजालिक ।
छीलरि पड्यौ बिगूचिसें, कै बाहुडि समँद सभाँलि ॥
तागै लागी माकड़ी रे, यौं तूँ खैल्यौ डाव ।
पाछै तागौ टूटसी, कै उलटि अपूठौ आव ॥
अनल पंखि का पूत ज्यूँ, बिलँबैगौ कहाँ बिचारि ।
सो ठाहर सूझै नहीं, तब उलटौ पंख सँवारि ॥
यौं बाहुड़ि मन माहरा रे, भूला पाछौ न्हालि ।
बषनां क्याँहनैं बीसरै, घर आपणौ सँभालि ॥७॥
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जिनि = मत । जंजालि = संसार । छीलर = छोटे-मोटे ताल-तलैया । बिगूचिसें = बर्बाद होगा । बाहुड़ि = उलटा आ । तागे = लार द्वारा निर्मित जाला । दाव = मौका, आसक्त हुआ । अनल = अडल पक्षी जो आकाश में रहता है तथा अग्नि खाता है । बिलँबैगौ = अटकेगा, रुकेगा । सँवारि = संभाल । न्हालि = देख, विचार कर । बिसारै = विस्मृत करे । घर आपणौ = अपनी आत्मा का बोध प्राप्त कर ।
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हे मेरे मन ! मेरे परामर्श को ध्यान से सुन । हरि से एकान्तिकी = अनन्य प्रेम कर ले । तू व्यर्थ ही संसार में लगकर देवदुर्लभ अमूल्य मनुष्य जन्म को मत हार । हे मेरे मन ! मेरे इस सत्परामर्श को बड़े ही ध्यान से सुन और उस पर अमल कर ।
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जिस प्रकार मगरमच्छ गहरे पानी में पानी के प्रवाह की दिशा में ही चलता है, इसीप्रकार तू भी संसार रूपी जल में आसक्त हो गया है । वस्तुतः संसार के सुख सागर के समान असीम न होकर छीलर = छोटी-मोटी ताल-तलैयाओं के समान ससीम हैं जिनमें आसक्त होकर तू बिगूचिसें = बर्बाद हो जायेगा । अंत में तेरे हाथों में पूंजी के नाम पर एक भी धेला नहीं होगा । अतः तू संसार से बाहुड़ि = विमुख होकर समंद रूपी परमात्मा की ओर मुड़ जा ।
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जिस प्रकार मकड़ी स्वयं के बनाये जाल में ही उलझ जाती है ऐसे ही तू भी अपने बनाये संसार के संबंधों में उलझ गया है । किन्तु अंत में ये झूंठे सम्बन्ध टूट जायेंगे । संसार के सम्बन्ध संसार में ही रह जायेंग । अतः उनको परित्याग करके उलटकर परमात्मा की ओर झुक जा ।
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जिस प्रकार अड़ल पक्षी का नवजात बच्चा आकाश में जन्म लेकर पृथिवी पर आने के पूर्व ही उड़ने लग जाता है वैसे ही तू भी बिना आधार वाले भोग विलासों में आसक्त हो गया है । अरे ! विचार तो कर, आखिर किस आधार पर तू टिकेगा ? किन्तु तेरा विवेक तो मंद पड़ गया है । तुझे कोई भी स्थान टिकने के लिये सूझता नहीं है । अब तो अपने पंख रूपी विवेक को जागृत कर और आधारहीन संसार को छोड़कर सर्वाधिष्ठान स्वरूप परब्रह्म परमात्मा की ओर मुड़ जा ।
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हे मेरे मन ! ऊपर बताई युक्तियों के आलोक में तू संसार से उलटकर आजा । अपनी पिछली भूलों पर गंभीरता से विचारकर आगे का रास्ता विवेक, वैराग्य और ज्ञान के आलोक में निश्चित कर । तू अपने निज घर = निज स्वरूप को संभालि = यादकर । क्यों व्यर्थ ही संसार में उलझकर अपने निजस्वरूप = शुद्ध-बुद्ध-अखंडानंद-स्वरूप आत्मा को भूलता है ॥७॥
(क्रमशः)
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