मंगलवार, 6 अगस्त 2024

*चेतावनी-उपदेश ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*अग्नि धूम ज्यों नीकलै, देखत सबै बिलाइ ।*
*त्यों मन बिछुटा राम सौं, दह दिश बीखर जाइ ॥*
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*चेतावनी-उपदेश ॥*
कुमारगि जिन जाइ रे, करम कोइ आँचलि लागैलौ ।
पासैं टल्यौ न पाव रै, तौ मृग मनाँ पड़ि भागैलौ ॥टेक॥
वैलै छेवड़ि तेल रस, पैलै छेवड़ि आगि ।
ऊंदर बाती ले गयौ, जल्यौ न सकियौ भागि ॥
गुड़ घिव मीठा देखि करि, माखि मलै कर बादि ।
पड़ि करि तिहिं मांहै मुई, बूडी बडै सवादि ॥
मरकट मीठा भूंगड़ा, मूठी बासण माहिं ।
घर घर बार नचाइसी, वो दिन सूझै नाहिं ॥
गोडै ठरड़ा लागताँ, खेत पराया खाइ ।
गलै बंधाई घंटिका, नाँव धर्यौ हरिहाइ ॥
मैं बषनां मन बरजियौ, भूंडी भरी न बीष ।
हरि भजि मारगि चालिए, या गुरि दीन्हीं सीष ॥८॥
करम = सकामकर्म, संसारासक्त मन से सांसारिक विषय वासनाओं के प्राप्त्यर्थ किये गये कर्म । आँचल = पल्ला; हृदय में सकाम भाव उत्पन्न करके बंधन के हेतु बन जायेंगे । पासैं = फाँसी, आसक्ति रूपी बंधक । टल्यौ न = दूर न हुआ तो । मृद मनाँ = मृग रूपी मन बंधन में पड़ा-पड़ा इधर-उधर उन्हीं विषयों के चिंतन में दौड़ता रहेगा । वैलै छेवड़ि = इस किनारे पर । पैलै छेवड़ि = उस किनारे पर । ऊंदर = मन रूपी चूहा । बाती = विषय भोग रूपी जलती बत्ती । मलै कर = गुड़, घी, मिष्ठान्नादि को प्राप्त करने का जी तोड़ प्रयत्न करती है । हाथ मलना = पछताना; जी तोड़ प्रयत्न करना । बादि = व्यर्थ । बड़ै = बडे = बृहत मात्रा । मरकट = बन्दर । बासण = सँकरे मुँह का बर्तन, घड़ा आदि । ठरड़ा = टक्कर । खेत पराया खाइ = भगवान द्वारा प्रदत्त भोगों को स्वयं द्वारा उपार्जित मानकर बिना भगवान को अर्पण करे भोगता । ‘भुंक्ते स्तेन एव सः ॥’ गीता ३/१२ ॥ हरिहाइ = हराहरा खाने वाला, विषय भोगों को सदैव बिना लोक परलोक का विचार किये भोगने वाला । भूंडी = बुरी । बीख = एक सी प्रवृत्ति । सीख = शिक्षा, उपदेश ॥
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आत्मजिज्ञासु को समझाते हुए कहते हैं, कुमार्ग पर मत चल । अन्यथा तेरे मन में संसार के प्रति गहरी आसक्ति जड़ जमा लेगी । तेरा मन सकामकर्मो को करने में लग जायेगा जिनके फल बंधन के कारण बन जायेंगे । यदि इन बंधनकारी फलों को भगवद्भक्ति के द्वारा टालने में समर्थ न हो सकेगा तो तेरा मनरूपी मृग इनमें ही उलझा हुआ इन विषयभोगों के प्राप्त्यर्थ सकामकर्मों के बीहड़ बन में ही इधर-उधर भागता रहेगा ।
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एक किनारे पर तैल रूपी विषयानंद है । दूसरी ओर उन्हें प्राप्त करने की प्रबल चाहना रूपी अग्नि है । मन रूपी चूहा दीपक की भोगासक्ति वृत्ति रूपी बत्ती को लेकर भागा किन्तु वह उस अग्नि का उल्लंघन न कर सका । उसी में जलकर मर गया ? यह जीव नाना कर्म करता हुआ नाना भोगों को भोगता है और उनमें इतना आसक्त हो जाता है कि उनसे बाहर निकलना उसके लिये उसीप्रकार शक्य नहीं होता जैसे चूहे को शक्य नहीं । अंततः ऐसा जीव पुनरपि जन्म और पुनरपि मरण के चक्र में ही उलझा रह जाता है ।
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गुड़, घी, मिष्ठान्नादि को देखकर मक्खी उनको प्रपात करने के लिये जी तोड़ प्रयत्न करती है कित्नु उसे इस बात का तनिक भी बोध नहीं होता है कि ये ही सभी मेरी मृत्यु के साक्षात कारण हैं । अंततः वह इनसे चिपकती है, इनके स्वाद में आकंठ डूबती है और एक दिन इनमें ही लगी-लगी मर जाती है ।
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बंदर तंग मुँह वाले बर्तन में हाथ डालकर सिके हुए चने अथवा मिठाई को मुठ्ठी बांधकर निकालने का प्रयत्न करता है किन्तु बंधी हुई मुठ्ठी तंग मुँह से निकल नहीं पाती । अंततः वह मदारी द्वारा पकड़ लिया जाता है । बंदर परवश हुआ मदारी द्वारा नचाये जाने पर घर-घर नाचता फिरता है । फिर भी उसे वह दिन याद नहीं आता जिस दिन उसने घड़े में हाथ डालने की भूल की थी ।
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जो हरहाई जानवर होते हैं उनके गले में लकड़ी का लम्बा टुकड़ा बांध दिया जाता है जप भागते अथवा चलते समय जानवर के गोड़ों के भिड़कर चोट करता है जिससे जानवर न तो तेज भागता है और न अधिक दूर तक जा पाता है । फिर भी हरहाई जानवर ठरड़े खाकर भी दूसरों के खेतों में उगी हुई फसल को खाने के लिये दौड़ता है, खाता है । किसान उसके गले में घंटी इस आशय से बांधता है कि जब यह पराये खेत में जायेगा तब घंटी की आवाज आयेगी और मैं इसे घेरकर अपने यहाँ ले आऊंगा किन्तु यह तो हरहाई जानवर होता है, दौड़ दौड़कर उस ओर जाता ही है । ऐसे ही विषयासक्त मन जिसे एक बार विषयों को भोगने की आदत पड़ जाती है, बार-बार उस ओर से हटाने पर भी बार-बार उसी ओर दौड़ता है ।
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इसीलिये बषनांजी कहते हैं मैंने मेरे मन को संसार के विषय भोगों की ओर जाने से रोका और कहा कि तू संसार की ओर भागने की ही एकजैसी भौंड़ी वृत्ति मत रख । शरीर निर्वाह के लिये संसार में प्रवृत्त होना पड़ता है । अतः अकर्ता भाव से प्रवृत्त हो । हरि भजन के मार्ग का अनुसरण कर । सद्गुरु महाराज ने तुझे यही शिक्षा दी है ॥८॥
(क्रमशः)

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