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*दादू अचेत न होइये, चेतन सौं चित लाइ ।*
*मनवा सूता नींद भर, सांई संग जगाइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ चेतावनी का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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उपदेश का अंग ८
नींद के नेह निर्मूल१ भयो नर,
श्वास उश्वास की चाल न थाकी ।
पक्षी के प्राण पर्यो तम२ निंद हि,
पाँय सु दृढ़ रहे रुपि साखी३ ॥
राहु रु केतु ग्रसैं शशि सूरज,
चाल निसाल४ रहै नहिं राखी ।
हो रज्जब पिंड ने प्राण गह्यो यूं पै५,
लै६ न गही जि७ जियो८ जिहि बाकी९ ॥५॥
निद्रा के प्रेम से नर के वाह्य ज्ञान का तो नाश१ सा हो जाता है किंतु श्वास प्रश्वास की गति तो नहीं थकती है ।
रात्रि के अंधेरे२ में पक्षी का जीव निद्रा के वश होकर अचेत पड़ा रहता है किंतु उसके पैर सुदृढ़ता से वृक्ष३ की शाखा पर रुपे रहते हैं ।
राहु केतु चन्द्र सूर्य के तेज को ग्रास करते हैं, किंतु उनकी चाल तो ग्रासना रूप दु:ख से रहित ही रहती है, उसे पकड़ कर नहीं रखते ।
हे सज्जनों ! वैसे ही शरीर ने प्राण को तो पकड़ रक्खा है परन्तु५ जीव७ की वृत्ति६ को तो नहीं पकड़ रक्खा है, जिससे जीव८ उसके ग्रहण करने से बच९ रहा है । अत: वृत्ति प्रभु में लगाना चाहिये ।
(क्रमशः)
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