मंगलवार, 6 अगस्त 2024

*संत रिझाय हरी सुखदाई*

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*दादू मैं दासी तिहिं दास की,*
*जिहिं संगि खेलै पीव ।*
*बहुत भाँति कर वारणें, तापर दीजे जीव ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*आत भयो पति देख बड़े जन,*
*क्यों रु खड़े तिरिया सु जनाई ।*
*आय कहा घर पावन कीजिये,*
*ले चरणामृत यूं मन आई ॥*
*मांहि गये मन आरति१ मेटन,*
*गावन२ रीति जु देत चिताई ।*
*अंग बनाय कहा तिय से पति,*
*संत रिझाय हरी सुखदाई ॥४१३॥*
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उस स्त्री का पति कहीं बाहर गया था । वह बड़ा हरि भक्त था । आया जब घर के द्वार पर एक संत को खड़ा देख के अपने को धन्य समझ कर दंडवत प्रणाम करके आसन दिया । फिर स्त्री से पूछा तब उसने सब बात बताई ।
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सुनकर वह आप के पास आया और बोला- "आप भीतर पधारिये, मेरे घर को पवित्र कीजिये ।" फिर उस मन में इच्छा हुई, इनका चरणामृत लेकर शिर पर धारण करूँ, वैसा ही किया ।
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आप अपने मन की कामजन्य व्यथा१ मिटाने के लिए भीतर गये और जो गवन२ की रीति थी, वह जिस प्रकार मुख से कही जाती है, वैसे ही उसको बता दी ।
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उसने अपनी पतिव्रता स्त्री को कहा- 'तुम श्रृंगार करके महात्माजी की सेवा करो । मन में ऐसा दृढ़ विश्वास रखो कि परम भागवत को निष्कपट सेवा द्वारा प्रसन्न करने से वह सेवा हरि को सुखदायक होती है अर्थात् उस से हरि प्रसन्न होते हैं' ॥
(क्रमशः)

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