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*कहा कहूँ कुछ वरणि न जाई,*
*अविगति अंतर ज्योति जगाई ।*
*दादू उनको मरम न जानै,*
*आप सुरंगे बैन बजाई ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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महापरिनिर्वाण दिवस ~ 8 सितंबर 1979, सदगुरु ओशो के पिताश्री स्वामी देवतीर्थ भारतीजी के महापरिनिर्वाण दिवस पर उन्हें शत शत नमन। स्वामी कृष्णतीर्थ ने प्रश्न पूछा: "भगवान ! आदरणीय दद्दाजी की मृत्यु पर आपने अपने संन्यासियों को कहा कि वे उत्सव मनाएं, नाचें। लेकिन इस उत्सव और नृत्य के होते हुए भी रह-रह कर आंसू पलकों को भिगोए दे रहे थे।
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भगवान, दद्दाजी के चले जाने के बाद हृदय को अभी भी विश्वास नहीं कि वे चले गए हैं। लगता है कि वे यहीं हैं। उन्होंने हमें जो प्रेम दिया वह अकथ्य है।"
ओशो ने उत्तर दिया: "कृष्णतीर्थ ! इसीलिए तो कहता हूं उत्सव मनाओ! कोई जाता नहीं, कोई कहीं जाता नहीं। जाने का उपाय नहीं है, जाने को कोई स्थान नहीं है।
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हम शाश्वत हैं। अमृतस्य पुत्रः। हम अमृत के पुत्र हैं। हम अमृत में ही लीन हो जाते हैं। जैसे बूंद सागर में खो जाती है। खोजे से नहीं मिलेगी अब; लेकिन खो नहीं गई है, सागर हो गई है। इसलिए तुम्हारा लगना ठीक है कि अभी भी विश्वास नहीं आता कि वे चले गए हैं। जिस दिन उनका महाप्रस्थान हुआ...।
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पांच सप्ताह से वे अस्पताल में थे। एक भी दिन उन्होंने खबर नहीं भेजी कि मैं देखने आऊं। मैं देखने गया दो बार, जब भी मुझे लगा कि खतरा है। लेकिन अंतिम दिन उन्होंने खबर भेजी, सुबह से ही खबर भेजी, तो मैंने कहा कि मैं आता हूं। मैंने खबर भेजी कि मैं आता हूं कि उनकी तत्क्षण खबर आई कि कोई जरूरत नहीं, नाहक परेशान न होओ।
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मैं फिर भी तीन बजे गया। मैं आनंदित था, क्योंकि उनका मुझसे जो मोह था, मुझे देखने का जो मोह था, वह उनका आखिरी बंधन था, वह भी टूट गया था। और जब मैंने उनसे कहा कि आपका कमरा भी तैयार हो गया है, नया बाथरूम भी बन गया है, बस अब दिन दो दिन में आपको अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली है; आपके लिए नई कार भी बुला ली है, क्योंकि अब पैर में तकलीफ है तो चलने में मुश्किल होगी, नई कार भी आ गई है--तो न तो उन्होंने नई कार में कोई उत्सुकता ली, न नये कमरे में, न नये बाथरूम में; सिर्फ कंधे बिचकाए, कुछ बोले नहीं।
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जरा सा भी रस दिखाते तो लौटना पड़ता। कंधे बिचकाए तो मैं खुश हुआ। कंधे बिचकाने का मतलब था कि सब बेकार है। अब सब मकान बेकार हैं, अब सब कारें बेकार हैं। अब कहां आना-जाना ? फिर भी मैंने दोहराया और जोर दिया कि चिंतित न हों, बस दिन दो दिन की बात है, घर ले चलेंगे। तो भी उन्होंने यह नहीं कहा कि घर आऊंगा; इतना ही कहा कि हां, कीर्तन करेंगे।
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घर आए, जीवित तो नहीं आए। और चूंकि उन्होंने कहा था कि कीर्तन करेंगे, इसलिए मैंने कहा कि पहला काम जो करने का है वह कीर्तन करो। आभास उन्हें स्पष्ट था कि जाने की घड़ी आ गई। अब कैसा घर ! असली घर जाने की घड़ी आ गई। सभी इस अवस्था को उपलब्ध हो सकते हैं। नहीं हो पाते, क्योंकि हम प्रयास नहीं करते हैं, हम ध्यान में नहीं डूबते हैं। एक ही उपाय है--ध्यान कहो, प्रार्थना कहो, जो भी नाम देना हो दो--एक ही उपाय है कि अपने में डूबो और अपने को पहचानो।
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उस सुबह उनकी अपने से पहचान पूरी हो गई। मुझे एक ही चिंता थी कि कहीं वे अपने को बिना जाने समाप्त न हो जाएं। एक ही फिक्र थी कि किसी तरह थोड़े दिन और खिंच जाएं। क्योंकि ध्यान उनका बस करीब-करीब आया जा रहा था। जैसे किनारे पर आ गए थे, बस एकाध कदम और! मगर कहीं ऐसा न हो कि वह एकाध कदम उठाने के पहले चले जाएं, तो फिर जन्म हो जाएगा। और फिर पता नहीं जो सुअवसर उन्हें इस बार मिला था वह इतनी आसानी से दोबारा मिलेगा कि नहीं मिलेगा।
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और एक बार भटका हुआ, कब फिर मंदिर के निकट आ पाएगा, यह भी कहना मुश्किल है। और एक चीज से दूसरी चीज पैदा होती चली जाती है। फिर सिलसिला अनंत हो सकता है। इसलिए मेरी एक ही चिंता थी। वे बचें, यह सवाल न था। इतनी देर बच जाएं केवल कि इस देह से सदा के लिए विदा हो सकें, बस इतनी मेरी चिंता थी। अगर वे बच गए होते और बिना समाधि को उपलब्ध हुए बच गए होते, तो मैं दुखी होता। वे नहीं बचे, मगर समाधि को उपलब्ध होकर नहीं बचे, तो मेरे आनंद का कोई पारावार नहीं है।
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कहते हैं, पिता के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं: मैं उऋण हो गया। और क्या दे सकता था उनको ? उन्होंने मुझे जीवन दिया था, मैंने उन्हें महाजीवन दिया। और तो कोई देने को चीज थी भी नहीं, है भी नहीं। जीवन के बाद तो बस महाजीवन ही एक भेंट है। मैं खुश हूं, आनंदित हूं। वे ऐसे गए हैं जैसे जाना चाहिए। उन्होंने ऐसे विदा ली है जैसी विदा लेनी चाहिए।
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इसलिए जो लोग वहां मौजूद थे उनकी आखिरी घड़ी में, उनको भी ऐसा नहीं लगा कि मृत्यु घट रही है। उनको भी ऐसा लगा जैसे महाजीवन घट रहा है। उनको भी ऐसा नहीं लगा कि कोई कालिमा उतर आई अमावस की। उनको भी ऐसा लगा जैसे पूर्णिमा हो गई।
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उनके मर जाने के बाद उनके शरीर को जाकर मैंने दो जगह छुआ था। एक तो आज्ञाचक्र पर। क्योंकि दो ही संभावनाएं थीं: या तो वे आज्ञाचक्र से विदा होते तो फिर एक बार उन्हें जन्म लेना पड़ता, सिर्फ एक बार; और अगर वे सातवें चक्र से, सहस्रार से विदा होते तो फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। पहले मैंने उनका आज्ञाचक्र देखा, डरते-डरते हाथ रखा उनके आज्ञाचक्र पर। क्योंकि जहां से जीवन विदा होता है वह चक्र खुल जाता है, जैसे कली खिल कर फूल बन जाए। और जिनको चक्रों का अनुभव है वे केवल स्पर्श करके तत्क्षण अनुभव कर ले सकते हैं--जीवन कहां से विदा हुआ। मैं अत्यंत खुश हुआ जब मैंने पाया कि आज्ञाचक्र से जीवन विदा नहीं हुआ है। तब मैंने उनका सहस्रार छुआ, जिसको सहस्रदल कमल कहते हैं, जिसको हजार पंखुड़ियों वाला कमल कहते हैं, वह खुला हुआ है। वे उड़ गए हैं सातवें द्वार से।
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कृष्णतीर्थ ! वे कहीं चले नहीं गए हैं, सिर्फ विदेह हो गए हैं--यहीं हैं। तुम्हारी आंखों से आंसू आ रहे हैं, क्योंकि तुम्हें इस बात पर भरोसा नहीं आता कि वे यहीं हैं। तुम्हारी आंख में आंसू आ रहे हैं, क्योंकि मृत्यु सदा से दुख का कारण रही है। और साधारणतः मृत्यु दुख का कारण है भी। लेकिन कभी कुछ मृत्युएं होती हैं जो दुख का कारण नहीं होतीं, आनंद का कारण होती हैं। होनी तो सभी मृत्युएं ऐसी ही चाहिए, प्रयास तो यही रहे, अभ्यास तो यही रहे, साधना तो यही चले कि तुम भी ऐसे ही मर सको।
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इस बुद्ध-क्षेत्र में मैं तुम्हें जीवन भी सिखाना चाहता हूं, मृत्यु भी सिखाना चाहता हूं। इसलिए किसी अवसर को छोड़ नहीं देना चाहता। मृत्यु की यह महाघटना घटी, मैं चाहता था यह तुम्हारे लिए पाठ बन जाए, तुम इसमें भी नाच सको।
ओशो की किताब "काहे होत अधीर" से संकलित।
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