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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ७३/७६*
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पंचाम्रित एही बिष, बिष अम्रित कहै लोइ ।
कहि जगजीवन अम्रित अमीरस, ताहि न चिन्हैं कोइ ॥७३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि हमारी पंच इन्द्रियों के सुख ही विष है जिसे लोग अमृत कहते हैं । अमृत परमात्मा का परमानन्द है जिसे कोइ नहीं पहचानता है ।
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भू पृथ्वी सा गगन हरि, नूर निरंजन नांम ।
कहि जगजीवन उदर भरि, बिलसि ह्रिदै रस रांम ॥७४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु नाम का आनंद तो पृथ्वी व आकाश जैसा है जहां सबकी उदरपूर्ति होती है ।
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केइ दक्खिण केइ पूरब पच्छिम, केइ उत्तर केइ मधि ।
कहि जगजीवन जे रस बिलसैं, ते जन पावैं सिधि७ ॥७५॥
(७. सिधी=सिद्धि, सफलता)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि कोइ परमात्मा को पाने पूर्व दिशा उत्तर दिशा, कोइ पश्चिम और कोइ दक्षिण भागता है । कोइ मध्य ढूंढता है जो इसके आनंद को देख जान पाते हैं वे ही इसे सिद्ध या पा लेते हैं ।
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बिच हरि पड़दा दूरि करि, पूरन जोति प्रकास ।
प्रांन पिवै हरि अमीरस, सु कहि जगजीवनदास ॥७६॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु और जीव के मध्य के आवरण को हटाकर उस पूर्ण ब्रह्म के साक्षात्कार को करो इस अवस्था में प्राण अमृतरस का पान कर पाते हैं ।
(क्रमशः)
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