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*साचे साहिब को मिले, साचे मारग जाइ ।*
*साचे सौं साचा भया, तब साचे लिये बुलाइ ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*जालन्धरनाथजी*
*छप्पय-*
*योग जलंध्री को सिरै, गुफा कूप करि मानियो ।*
*दीक्षा लेने काज, मात गोपीचंद मेल्यो ।*
*गुरु कही विपर्य्यय साखि, समझ बिन कूप हि ठेल्यो ।*
*तहँ ही लगी समाधि, अलख अभि अन्तर ध्यायो ।*
*सप्त धातु पूतला, भस्म कर बाहर आयो ॥*
*राघव गोपीचंद को, अमर कियो शिष रानियो ।*
*योग जलंध्री को सिरै, गुफा कूप करि मानियो ॥३११॥*
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जालन्धरनाथजी के भी गुरु श्रीशंकर भगवान् ही हैं । शिव पार्वती ने एक समय एक शिशु को समुद्र में बहते हुये देखा और उसे उठा लिया । शिवजी ने कृपा करके उसे योग का उपदेश किया । वहीं बालक जालन्धरनाथ के नाम से विख्यात हुआ । जालन्धरनाथजी बड़े ही सिद्ध महात्मा हुये हैं ॥३११॥
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छप्पयार्थ- जालन्धरजी का योग अत्यन्त श्रेष्ठ था । आपने कूप को ही गुफा करके मान लिया था अर्थात् कूप में ही समाधि लगा ली थी । एक समय जालन्धरनाथजी बंगाल के गौड़ प्रदेश के राजा गोपीचन्दजी की राजधानी में थे । उन्हीं दिनों में गोपीचन्द की माता मैणावती, जो गोरक्षनाथजी की शिष्या थी, उसे गोपीचन्द की मृत्यु का दिन ज्ञात था । और वह अति समीप आ गया था ।
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इससे माता गोपीचन्द को बारम्बार योगी होने की प्रेरणा करने लगी । कारण उसे ज्ञात था कि संत होने से दूसरा जन्म हो जाता है । और यह गोपीचन्द भी योगी हो जायगा तो मृत्यु से बच जायगा । अंत में जब गोपीचन्द ने स्वीकार कर लिया तब वहाँ आये हुये जालन्धर नाथजी को मैणावती जानती थी । अतः गोपीचन्द को जालन्धरनाथजी के पास ले जाकर गोपीचन्द को शिष्य बनाने के लिये जालन्धरजी से प्रार्थना की ।
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जालन्धरजी ने स्वीकार करके गोपीचन्द को शिष्य बना लिया । गोपीचन्द की मृत्यु का समय टल गया । इससे मैणावती अति प्रसन्नता के साथ गोपीचन्द को जालन्धरजी के पास छोड़ कर राजमहल को चली गई । पीछे से जालन्धरजी ने जिस पद्म से गोपीचन्द को उपदेश दिया वह विपर्य्यय था-
"माता मारे धी धरे, गऊ सपुच्छी खाय ।
ब्राह्मण मारे मद्य पिये, सोउ मुक्ति पद पाय"॥
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इस पद्य के सुनाते ही जालन्धरजी की समाधि लग गई । इसका अर्थ आप गोपीचन्द को नहीं बता पाये । गोपीचन्द ऊपर शब्दों से भासने वाले अर्थ को विपरीत समझकर भ्रम में पड़ गया और अपने एक सुपरिचित विद्वान् के पास इसका अर्थ समझने गया । किन्तु वह भी शब्दार्थ को ही जानने वाला था । संत के गूढ विचारों को नहीं समझ सका ।
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इससे बोला- अर्थ तो प्रत्यक्ष ही होता है- माता को मारे, लड़की को पत्नी करके रखे, गाय को पुच्छ के सहित खाय, ब्राह्मणों को मारे, वह मुक्ति पद को प्राप्त होता है । राजन् ! ऐसा करने से मुक्ति तो नहीं नरक अवश्य प्राप्त होगा । नरक जाना चाहते हो तो ऐसा करो । ऐसा उपदेश करने वाला संत नहीं हो सकता । वह तो कोई अत्यन्त ही घृणा का पात्र है ।
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उससे तो देश को अति हानि की संभावना है । ऐसे मनुष्य को तो मार डालने से ही देश का हित है । नहीं मारने से तो यह सबको पथ भ्रष्ट करेगा । यह सुनकर गोपीचन्द को भी जालन्धरजी पर क्रोध आ गया । उसने आज्ञा दे दी कि "अश्वशाला के पीछे कूप के पास जो साधु है उसे अति शीघ्र कृप में डाल कर वहाँ जो लीद की राशि पड़ी है, उससे कूप को भर दो । इस कार्य में देर न हो । रात्रि में ही यह कार्य पूरा हो जाना चाहिये ।"
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राजा की आज्ञानुसार यह अति शीघ्र हो गया । कूप में डालने पर भी उनकी समाधि नहीं खुली, लगी ही रही । न वे जल में पड़े और न लीद ने उनका स्पर्श किया । भगवत् कृपा से वे बीच के आकाश में स्थिर रहे । जालन्धरजी ने अलक्ष(मन वाणी के अविषय) ब्रह्म की उपासना समाधि द्वारा कूप में ही की थी ।
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उक्त सब काम कराकर गोपीचन्द राजमहल में माता मैणावती के पास गया । तब माता ने कहा-गुरुजी की सेवा को छोड़ कर यहाँ क्यों आया है ? गोपीचन्द ने कहा- "वे काहे के गुरु हैं ? गुरुओं के उपदेश से तो प्राणी का उद्धार होता है । उनने तो मुझे ऐसा उपदेश दिया है कि मैं उसके अनुसार करूँ तो सीधा नरक में जाऊँगा ।"
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माता बोली- "ऐसा क्यों कहते हो ? वे तो गुरुओं के भी गुरु हैं । उनके उपदेश से तो प्राणी परम पद को प्राप्त होते हैं । तुम्हें क्या उपदेश दिया, मुझे सुनाओ ।" गोपीचंद ने सुनाया-
"माता मारे धी धरे, गऊ सपुच्छी खाय ।
ब्राह्मण मारे मद्य पिये, सोउ मुक्ति पद पाय"॥
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यह सुनकर मैणावती बोली- "पुत्र ? यह तो अति उत्तम उपदेश है, ऐसा उपदेश उस महापुरुष्त के बिना दे ही कौन सकता है ?" गोपीचन्द- "इसमें क्या उत्तमता है ? मैं समझने के लिये अमुक विद्वान् के पास भी हो गया था, उसने भी जो शब्दों से प्रतीत हो रहा है यही बताया है ।" “पुत्र वह तो शब्दों का ही पंडित है, पढ़े हुए विषयों को ही समझता है । संतों के गूढ विचार को वह नहीं समझ सकता, उनको तो सत्संगी ही समझ सकता है ।”
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फिर गोपीचन्द ने कहा- "माताजी आपने तो गोरक्षनाथजी जैसे संतों का सत्संग किया है । इसका अर्थ कृपा करके आप ही बताइये, जिससे मेरा भ्रम दूर होकर यथार्थता का पता लगे ।" “पुत्र पद्य में माता शब्द का अर्थ ममता है, जो ममता को नष्ट करता है और धी का अर्थ बुद्धि (ज्ञान) है, संतों के ज्ञान को हृदय में धारण करता है ।
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गो नाम विषयों में गमन करने वाली इन्द्रियों का है । उनकी विषयाकार वृत्ति ही उनका पुच्छ है । विषयाकार वृत्ति के सहित उनको जीतकर ब्रह्माकार रखना ही गऊ खाने का अर्थ है । ब्राह्मण का अर्थ रजोगुण है । जो रजोगुण को नष्ट करके सतोगुण बढ़ाते हुए भगवद्भक्ति रूप मद्य पान करता है अर्थात् भक्ति रस से मतवाला होता है । तब आत्म ज्ञान होकर मुक्त हो जाता है ।
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ऐसा उपदेश तेरे उन गुरु देव के बिना और कौन कर सकता है ? अन्य सब तो स्वार्थरत होने से संसार दशा का ही उपदेश करते हैं । उनके उपदेश से ही तू आज मृत्यु से बचा है । यदि वे तेरे को शिष्य नहीं बनाते तो यह तेरा सुन्दर शरीर आज भस्म होने वाभ्या था । यह मुझे पहले से ही ज्ञात था । तभी तो मैंने आग्रहपूर्वक तुझ को उनका शिष्य बनाया था ।
गोपीचन्द अपनी माता के द्वारा गुरुजी का उपदेश समझकर अत्यन्त लज्जित होकर तथा नीचा मुख करके बोला- "माताजी ! यदि ऐसा है तब तो मुझसे बड़ा अनर्थ हुआ है । मैने तो गुरुजी को कूप में डलवा कर ऊपर लीद भरा दी है । अब मैं शीघ्र जाकर उनको कूप से निकालता हूँ ।"
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मैणावती ने कहा- "यदि तुमने ऐसा किया है तो यह अति अनुचित किया है । किन्तु उन महा योगेश्वर का कूप में कुछ नहीं बिगड़ेगा । न वे पानी में डूबेंगे और न उनको लीद ही स्पर्श करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है । तुम्हारे निकालने से तो देश के सहित तुम्हारे नाश का भय है । अब तो जब गुरु गोरक्षनाथजी यहाँ पधारेंगे तब ही उनके परामर्श से तुम्हारे गुरुजी को कूप के बाहर निकाला जायगा ।
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अब तुम इस राजमहल में मत रहो, अपने को राजा मत समझो, साधु भेष बना कर भगवद्भजन करो । किले में रहो, छप्पन भोग जीमो और अति उत्तम शय्या पर शयन करो । इस प्रकार रहते हुये जब तक यहाँ गोरक्षनाथजी नहीं आवें तब तक गौड़ के आस-पास ही विचरो ।"
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गोपीचन्द बोला- "माताजी! आप साधु भेष बना कर रहने को कहती हो और उसके विरुद्ध किले में रहने की भी आज्ञा देती हो, यह कैसे हो सकेगा ? राजमहल बिना छप्पन भोग और अति उत्तम शय्या कहाँ मिलेगी ?" माता बोली- "किले में रहने का मेरा आशय है, संतों के बीच में रहो ।
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जैसे राजा की रक्षा किला करता है, वैसे ही साधक की रक्षा संत करते हैं । छप्पन भोग से मेरा आशय है, जब अधिक भूख लगे तब खाओ तो सूखे टुकड़े भी छप्पन भोग के समान प्रिय लगेंगे । अति उत्तम शय्या से मेरा तात्पर्य है कि खूब निद्रा सताने लगे तब सोया करो । तब तुम्हें कंकरों वालों भूमि पर अति उत्तम शय्या के समान ही निद्रा आयेगी ।" माता के उपदेश के अनुसार गोपीचन्द रहने लगे ।
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उन्हीं दिनों गोरक्षनाथजी विदर्भ देश में विचरते हुए विदर्भ देश की राजधानी में जा पहुँचे । नगर के बाहर एक बगीची में ठहर गये । आप के साथ और भी दो-चार साधु थे । एक को कहा- "नगर से भिक्षा ले आओ ।" वह गया तब नगर के द्वार पर द्वारपालों ने रोकते हुये कहा- "महाराज ! राजा की आज्ञा है, नगर से भिक्षा लाना चाहो तो, वह द्वार के तीसरे खंड पर लटक रहा है उस नाद को नीचे खड़े हुए ही बजा दो फिर नगर में जाओ और नहीं बजा सको तो कन्हीपा के आश्रम में जाकर भोजन करो ।"
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द्वारपालों की बात सुनकर संत लौट आये । गोरक्षनाथजी ने पूछा "बिना भिक्षा ही कैसे लौट आये ।" संत ने द्वारपालों की उक्त बात सुना दी । तब गोरक्षनाथजी समझ गये कि यहाँ का राजा कन्हीपा का शिष्य है और यह सब प्रपंच कन्हीपा का ही है । तब स्वयं गोरक्षनाथजी भिक्षा को गये । द्वारपालों ने राजा की उक्त आज्ञा सुना दी ।
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तब एक मृतक कुतिया वहाँ पड़ी थी । गोरक्षनाथजी ने उसमें प्राण का संचार करके उसे नाद के पास आकाश में भेजकर उसके द्वारा अत्यन्त जोर से नाद बजवाया वह सब नगर और कन्हीपा को भी सुनाई दिया । फिर गोरक्षनाथजी नगर में जाकर भिक्षा लाये और साधुओं के साथ भोजन करके विश्राम किया । नाद की यह खबर सब नगर में फैल गई थी, कि एक योगी ने मरी हुई कुतिया से नाद बजवाया ।
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कन्हीपा ने निश्चय किया कि ऐसा तो गोरक्षनाथ ही हो सकते है । कहाँ ठहरे हैं यह पता लगाकर अपने एक शिष्य को उनके पास भेजकर उन्हें अपने पास बुलाया । गोरक्षनाथ आये । आते ही कन्हीपा ने कहा- "गुरु घरबारी चेला अवधूत, अच्छे आये रन्डी के पूत ।" अर्थात् आपके गुरु मत्स्येन्द्रनाथजी तो आसाम के कामरूप प्रदेश में गृहस्थी बने बैठे हैं और आप लोगों को सिद्धियाँ दिखाते फिरते हैं । ऐसे सिद्ध हो तो अपने गुरुजी को स्त्रियों के जाल से तो निकालो ।
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गोरक्षनाथजी ने कहा- "मेरे गुरुजी को तो मैं निकाल लाऊँगा । किन्तु आपके गुरुजी भी तो बंगाल के गौड़ प्रदेश के कूप में लीद के नीचे दबे हुए हैं तुम भी तो उनको निकालो ।" कन्हीपा ने कहा- "ऐसा है तो मैं तो अभी अपने हजारों शिष्यों के साथ बंगाल को जाता हूँ, अति शीघ्र निकाल लूंगा ।" गोरक्षनाथजी ने कहा- "आपके पहले मैं मेरे गुरुजी को निकाल कर ले आऊँगा ।
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फिर वहाँ से गोरक्षनाथजी गौड़ आये । मैणावती से मिले । उसे रक्षा का विश्वास दिलाकर जिस कूप में जालन्धर थे उस पर गये और लीद को कहा- कन्हीपा आकर खोदने लगें तब मैं आऊँ तब तक दिन दूनी और रात चौंगनी होते जाना । फिर वहाँ से वे कामरूप में गये और नाना युक्तियों और योग शक्तियों से मत्स्येन्द्रनाथजी के पास पहुँच गये । इधर कन्हीपा गौड़ में पहुँच गये ।
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मैणावती ने उनका आदर सत्कार किया और उनकी सब व्यवस्था करते हुये अपने अबोध पुत्र गोपीचन्द की भूल के लिये क्षमा माँगते हुये रक्षा की प्रार्थना की । कन्हीपा ने रक्षा का अश्वासन दिया और लीद खोदना आरम्भ कर दिया, किन्तु खोदते खोदते सब हार गये वह बढ़ती थी, कम तो नहीं होती थी ।
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उधर गोरक्षनाथजी अपनी योगशक्तियों से गुरुजी को स्त्रीयों के जाल से निकाल कर गौड़ ले आये । वह कथा मायामत्स्येन्द्र नाम से प्रसिद्ध है । आगे आकर देखा तो कन्हीपा के हजारों शिष्य लीद निकालने में लगे हैं । किन्तु वह तो दिन दूनी और रात चौगुनी हो जाती थी । सब हैरान थे । गोरक्षनाथ कन्हीपा के पास आकर बोले- "मेरे गुरुजी तो पधार गये हैं । आपने अपने गुरुजी को निकाल लिया ।"
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कन्हीपा बोले- "गोरक्षजी! हम तो लीद निकालते निकालते हैरान हो गये हैं । वह कम होती ही नहीं, अधिक ही बढ़ती है ।" गोरक्षनाथजी ने कहा- "अब आप चिन्ता मत करो, थोड़ी देर में ही निकल जायगी ।" गोरक्षनाथजी ने कूप पर जाकर कहा-"टीडी होकर सब उड़ जा ।" बस थोड़ी ही देर में टीड़ी होकर वह उड़ गई । फिर सबने मध्य आकाश में समाधिस्थ जालन्धरजी का दर्शन किया ।
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मैणावती गोपीचन्द आदि ने उपस्थित सभी नाथ संतों को प्रार्थना की, किसी भी प्रकार आप लोग हमारी रक्षा करें, हम सब आप लोगों की शरण में हैं । सभी नाथ संतों ने उनको रक्षा का आश्वासन दिया । फिर उन नाथ योगियों ने विचार किया कि किस प्रकार गोपीचन्द आदि को शाप से बचाया जाय ।
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पश्चात् गोरक्षनाथजी आदि सिद्ध योगियों ने ध्यान द्वारा भविष्य में होने वाली घटना को जान लिया और सप्तधातुओं के गोपीचन्द के आकार के सात पुतले बनवाये और उनके पैरों में ऐसी मशीन लगाई गई जिससे वे मनुष्य के समान चल सकें । उनके तैयार हो जाने पर लन्धरनाथजी की समाधि खुलने का यत्न किया । समाधि खुलने पर कन्हीपा एक गोपीचन्द के पुतले को साथ लेकर कूप के ऊपर से ही गुरुजी की परिक्रमा करने लगे ।
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दूसरे की छाया कूप में देखकर कर जालन्धरनाथजी ने पूछा- "कन्हीपा तुम्हारे साथ यह कौन है?" कन्हीपा ने कहा- "गोपीचन्द ।" यह सुनते ही जालन्धरजी बोले- "भस्म ।" बस वह सप्तधातु निर्मित गोपीचन्द का पुतला उसी क्षण भस्म हो गया । उक्त प्रकार ही सातों पुतले भस्म हो जाने पर, गोरक्षनाथजी ने गोपीचन्द को कहा- "अब आठवीं बार तुम कन्हीपा के साथ परिक्रमा करो, तुम्हें जालन्धर अमर होने का शुभाशीर्वाद दे देंगे निर्भयता से जाओ ।"
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अष्टम बार भी पूर्ववत् पूछा- "दूसरा कौन है?" कन्हीपा ने कहा- "गोपीचंद" । यह सुनते ही जालन्धरजी ने कहा- "गोपीचन्द अमर" बस फिर जालन्धरजी को कूप से बाहर निकाल कर सब योगियों ने उनको प्रणाम किया । गोपीचन्द आदि ने भी चरणों में पड़कर भूल के लिये क्षमा याचना की ।
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फिर जालन्धरजी ने अपने मुख्य शिष्य कन्हीपा को पूछा- "मेरे सात बार बोलने पर भी गोपीचन्द भस्म नहीं हुआ । बड़ा आश्चर्य है । क्या बात थी । बताओ ?" कन्हीपा ने कहा- "गुरुजी गोपीचन्द तो सातों ही बार भस्म हो गया था । ये देखिये सात भस्म की राशि पड़ी हुई हैं ।" जालन्धरजी ने कहा- "गोपीचन्द एक था और वह जीवित है । तुम क्या कह रहे हो ?"
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कन्हीपा ने कहा- "गोपीचन्द की रक्षा के लिये मैने सप्तधातु के सात पुतले बनाये थे, वे सब भस्म हो गये हैं । आठवीं बार गोपीचन्द साथ था । आपने गोपीचन्द को अमर होने का वर दिया है । यह सुनकर जालन्धरजी ने कहा- "सात वचन लोपे हैं मेरे, संतत सर्प खिलावें तेरे ।" तूने मेरे सात वचन व्यर्थ किये हैं, इसलिये तेरे शिष्य सदा सर्पों को खिलाया करेंगे ।
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कालबेले(सपेले) कन्हीपाजी के शिष्य हैं, गुरुजी के शाप से अब तक सर्पों के द्वारा ही अपनी जीविका चला रहे हैं । उक्त प्रकार जालन्धरजी ने गोपीचन्द को तो अमर किया और अपने शिष्यों को रानिया(शाप दिया) था । जालन्धरनाथजी शिव के शिष्य और महान् सिद्ध पुरुष हुए हैं ॥
(क्रमशः)
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