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*ना वह मिलै, न हम सुखी, कहो क्यों जीवन होइ ।*
*जिन मुझको घायल किया, मेरी दारु सोइ ॥*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*(६)मास्टर, नरेन्द्र आदि के संग में*
मास्टर श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हुए हैं । हीरानन्द को गये अभी कुछ ही समय हुआ होगा ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - बहुत अच्छा है, न ?
मास्टर - जी हाँ, स्वभाव बड़ा मधुर है ।
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श्रीरामकृष्ण - उसने बतलाया २२ सौ मील - इतनी दूर से देखने आया है !
मास्टर - जी हाँ, बिना अधिक प्रेम के ऐसी बात नहीं होती ।
श्रीरामकृष्ण - मेरी बड़ी इच्छा है कि मुझे भी उस देश में कोई ले जाय ।
मास्टर - जाते हुए बड़ा कष्ट होगा, चार-पाँच दिन तक रेल पर बैठे रहना होगा ।
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श्रीरामकृष्ण - तीन पास कर चुका है । (युनिवर्सिटी की तीन उपाधियाँ हैं ।)
मास्टर - जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण कुछ शान्त हैं, विश्राम करेंगे ।
श्रीरामकृष्ण - (मास्टर से) - खिड़की की झंझरियों को खोल दो और चटाई बिछा दो ।
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मास्टर पंखा झल रहे हैं । श्रीरामकृष्ण को नींद आ रही है ।
श्रीरामकृष्ण - (जरा सोकर, मास्टर से) - क्या मेरी आँख लगी थी ?
मास्टर - जी हाँ, कुछ लगी थी ।
नरेन्द्र, शरद, और मास्टर नीचे हॉल (Hall) के पूर्व ओर बातचीत कर रहे हैं ।
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नरेन्द्र - कितने आश्चर्य की बात है ! इतने साल तक पढ़ने पर भी विद्या नहीं होती ! फिर किस तरह लोग कहते हैं कि 'मैंने दोन-तीन दिन साधना की; अब क्या, अब ईश्वर मिलेंगे !' ईश्वर-प्राप्ति क्या इतनी सीधी है ? (शरद से) तुझे शान्ति मिली है, मास्टर महाशय को भी शान्ति मिली है, परन्तु मुझे अभी तक शान्ति नहीं मिली ।
(क्रमशः)
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