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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*ऐसो राजा सोई आहि,*
*चौदह भुवन में रह्यो समाहि ।*
*दादू ताकी सेवा करै,*
*जिन यहु रचिले अधर धरै ॥*
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*सांसारिक ऐश्वर्यादि की नश्वरता ॥*
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पिरथी परमेसर की सारी ।
कोइ राज अपनैं सिर ऊपरि, भार लेहु मति भारी ॥टेक॥
पिरथी कारणि कैरौं पांड़ौं, करते झूझ दिनाई ।
मेरी मेरी करि करि मूये, निहचै भई पराई ॥
जाकै गिरह पाइड़ै बांध्यै, कूवै मींच उसारी ।
ता रावण की ठौर न ठाहर गोबिन्द गरब प्रहारी ॥
केते राजा राज बईठे, केते छत्र धरैंगे ।
दिन द्वै चारि मुकाम भया है, फिरि भी कूच करैंगे ॥
अटल एक राजा अबिनासी, जाकी लोक अनंत दुहाई ।
दादू१ कह पिरथी है ताकी, नहीं तुम्हारी भाई ॥२९॥१
(१.दोनों हस्तलिखित प्रतियों में इस पद की छाप बषनां के स्थान पर दादू ही मिली है । मंगलदासजी की पुस्तक में छाप बखनां है)
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यह सारी पृथिवी परमेश्वर की है । इसका असली और एक छत्र स्वामी परमेश्वर है । किसी भी राजा को इसे अपनी निजी सम्पत्ति मानकर अपने शिर पर भारी भार नहीं लेना चाहिये ।
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वस्तुतः अपनी मानने के कारण अनेकों लोगों का दमन-नियंत्रण करना पड़ता है । दमन करने में प्रजाजनों को शारीरिक, मानसिक सभी प्रकार की प्रताड़ना सहनी पड़ती है जिसका पाप राजा को लगता है और परलोक में उस पाप को भुगतना पड़ता है । इस पृथिवी के लिये ही कौरव तथा पांडव दिन-प्रतिदिन युद्ध किया करते थे । वे दोनों ही इसको मेरी-मेरी कहते-कहते ही मार गये किन्तु आगे जाकर निश्चय ही यह उनकी न रहकर पराई = दूसरों की हो गई ।
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जिसकी चारपाई के पाये से नौ ग्रह बंधे रहते थे, जिसने मृत्यु को कूवे = पाताल में भेज दिया था, उस रावण की ठौर = पृथिवी का आज नामोनिशान तक नहीं है । वस्तुतः गोविन्द गर्वप्रहारी है । वह उस व्यक्ति के गर्व को यथासमय समाप्त कर देता है जो उस परमात्मा की वस्तु को बिना उसके दिये अपनी मानता है । “तैर्दात्तानप्रदायैम्यो यो भुङ्क्तेस्तेन एव सः” ॥ गीता ३/१२ ॥
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कितने ही राजा राजसिंहासन पर आसीन हुए हैं । कितने ही आसीन होंगे । उन सभी का दो चार दिन = कुछ समय ही इस पृथिवी पर रहना हुआ है और जो आगामी समय में छत्रधारण करेंगे वे भी अंततः यहाँ से प्रस्थान करेंगे ही ।
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वास्तव में अटल = अविनाशी राजा एकमात्र रामजी है जिसका राज पृथिवी लोक में ही नहीं अनंत लोकों में है । हे राजा लोगों ! यह पृथिवी तुम्हारी नहीं है । यह तो परमेश्वर की है इसे अपनी मानकर व्यर्थ ही अपने ऊपर भार मत बढ़ाओ ॥२९॥
(क्रमशः)
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