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*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साँच का अंग)*
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सवैया ग्रन्थ ~ भाग ३
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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साँच चाणक का अंग १४
विरक्त रूप धर्यो वपु बाहर,
भीतर भूख अनन्त विराजी१ ।
ऊपरि सौं पनहि२ पुनि त्यागी जु,
मांहि तृष्णा तिहिं लोक की साजी७ ॥
कपट कला करि लोक रिझायो हो,
रोटी को ठौर करी देखी ताजी३ ।
हो रज्जब रूप रच्यो ठग को जिय४,
साधु लखै सब लाखी५ रु पाजी६ ॥१॥
सत्य और चुभने वाली बातें कह रहे हैं - बाहर से तो विरक्त का रूप धारण कर रखा है और भीतर अनन्त भूख बैठी१ है ।
ऊपर से तो जूता२ त्याग कर तथा पैसा त्याग कर त्यागीजी बना है किंतु हृदय में तीनों लोकों की भोगों की तृष्णा सजा७ रखी है ।
देखो, ऐसे त्यागी कपट रूप कला से लोकों को प्रसन्न करके रोटी के लिये नवीन३ स्थान तैयार कर लेते हैं ।
हे सज्जनों ! हृदय४ में तो ठग का रूप बना रखा है, किंतु बाहर से सब लोग साधु देखते हैं और होता है वह अत्याधिक५ दुष्ट६ ।
(क्रमशः)
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