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*दादू मन फकीर सतगुरु किया, कहि समझाया ज्ञान ।*
*निश्चल आसन बैस कर, अकल पुरुष का ध्यान ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*मत्स्येन्द्रनाथजी*
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*छप्पय-*
*महादेव मन जीत तैं, नाथ मछिन्दर अवतरे ॥*
*अष्टांग योग अधिपति, प्रथम यम नियम सु साधे ।*
*आसन प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा ध्यान समाधे ॥*
*षष्ठ चक्र वेधिया, अष्ट कुंभक सो कीया ।*
*मुद्रा दशम लगाय, बंध त्रय ता मधि दीया ॥*
*भक्ति सहित हठ योग कर, जन राघव यूं निस्तरे ।*
*महादेव मन जीत तैं, नाथ मछिन्दर अवतरे ॥३१०॥*
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मन को जीतने वाले महादेवजी की कृपासे ही मत्स्येन्द्रनाथजी का अवतार हुआ था । मत्स्येन्द्रनाथजी के गुरु भगवान् श्रीशंकरजी ही माने जाते हैं । स्कन्दपुराण नागर खंड २६२ अध्याय में और बृहन्नारद पुराण(उत्तर भाग) वसुमोहनी संवाद ६९ अध्याय में इनकी उत्पत्ति के विषय में कथा आती है ।
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एक बालक को माता पिता ने अशुभ नक्षत्र में उत्पन्न होने के कारण समुद्र में फेंक दिया था । उसे एक मछली ने निगल लिया था । फिर शिव पार्वती का योगविषयक संवाद सुनकर वह बालक शिवजी के कथनानुसार योग करता हुआ मछली के पेट से निकलकर "आदेश" "आदेश" बोलने लगा ।
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माता पार्वती ने उस बालक को उठा लिया और मत्स्येन्द्र नाम रख दिया । शंकर भगवान् से योग विद्या सीख कर इनने फिर संसार में योग विद्या का प्रचार किया । 'मत्स्येन्द्र- संहिता' नामक एक योग विषय ग्रंथ इनका मिलता है । आप अष्टांग के अधिपति थे अर्थात् अष्टांग योग पर आपका पूरा पूरा अधिकार था ।
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आपने अष्टांग के प्रथम अंग पंच प्रकार~
*[१] यम-* १. अहिंसा, २. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य, ५. अपरिग्रह ।
*[२] नियम-* १. शौच, २. संतोष, ३. तप, ४. स्वाध्याय, ५. ईश्वरप्रणिधान । इन दोनों अंगों को अच्छी प्रकार साधा था ।
*[३] आसन-* आसनों में सिद्ध और पद्म ही योग साधन के लिये मुख्य माने जाते हैं ।
*[४] प्राणयाम-* १. पूरक, २. कुंभक, ३. रेचक ।
*[५] प्रत्याहार-* विषयों में विचरने वालों इन्द्रियों को विषयों से हटाकर अंतर्मुख करना ।
*[६] धारणा-* ध्येय देश में चित्त संधारण करना । धारणा पञ्च प्रकार है ।
*[७] ध्यान-* धारणा के देश में चित्त वृत्ति का तैल धारावत अखण्ड प्रवाह तथा मन का निर्विषय होना ध्यान कहलाता है ।
*[८] समाधि-* ध्येय वस्तु के स्वरूप को प्राप्त हुआ मन जब अपने ध्यान स्वरूप का परित्याग कर के और संकल्प विकल्प से रहित होकर केवल ध्येय वस्तु के स्वरूप से स्थित होता है, तब उसकी उस अवस्था को योगीजन समाधि कहते हैं । यह दो प्रकार की है-१. सम्प्रज्ञात और २. असम्प्रज्ञात ।
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हठ योग की साधना भी आपने सम्यक् प्रकार की है ।
*षट्चक्र-* १. मूलाधार, २. स्वाधिष्ठान, ३. मणिपूरक, ४. अनाहत, ५. विशुद्ध, ६. आज्ञा । इन षट् चक्रों का भी आपने वेध किया है अर्थात् इनकी साधना पूर्ण रूप से की है ।
*अष्ट कुंभक-* १. सूर्यभेदन, २. उज्जायी, ३. सीत्कार, ४. शीतली, ५. भस्त्रा, ६. भ्रमरी, ७. मूच्छां, ८. प्लाविनी । इन अष्ट कुंभक रूप प्राणायाम की साधना भी आपने अच्छी प्रकार की थी ।
*दश मुद्रा-* १. महामुद्रा २. महाबन्ध, ३. महावेध, ४. खेचरी, ५. उड्डयानबन्ध, ६. मूलवन्ध, ७. जालन्धरवन्ना, ८. विपरीतकरणी, ९. वज्रोली, १०. शक्तिचालन । इन दश मुद्राओं की साधना भी आपने की, और इनके भीतर जो तीन बन्ध आये हैं- उड्यान, मूल और जालन्धर । इन तीनों को तो बहुत किया था । इन बन्धों का देना परम आवश्यक होता है ।
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राघवदासजी कहते हैं- इस प्रकार भक्ति सहित हठयोग करके आप संसार-सागर से पार हुये हैं । अष्टांग योग और हठयोग सम्बन्धी सभी साधना विस्तार पूर्वक समझने के लिये 'साधकसुधा' पढ़ें । एक समय नैपाल के राजा श्रीवसंतदेवजी राज्यच्युत होकर श्रीगुरु मत्स्येन्द्रनाथजी की शरण में आये थे । तब आपके आशीर्वाद से उन्हें पुनः राज्य की प्राप्ति हुई थी ।
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उनने मत्स्येन्द्रनाथजी को शिवस्वरूप मानकर उनके मंदिर की स्थापना की थी और नैपाल के घर घर में उनकी पूजा का प्रचार किया था । नेपाल के भोगमती नामक गाँव में मत्स्येन्द्रनाथजी का प्रधान धाम है । यहाँ प्रति वर्ष वैशाख में तीन दिन तक उत्सव मनाया जाता है । श्रीमत्स्येन्द्रनाथजी की सवारी बड़ी सज-धज के साथ निकाली जाती है ॥३१०॥
(क्रमशः)
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