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*सोने सेती बैर क्या, मारे घण के घाइ ।
दादू काटि कलंक सब, राखै कंठ लगाइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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*अहोभाव*
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हम तो अनगढ़ पत्थर हैं। छैनी चाहिए, हथौड़ी चाहिए, कोई कुशल कारीगर चाहिए–कि गढ़े ! और कारीगर भी है। मगर हम टूटने को राजी नहीं हैं। जरा सा हमसे छीना जाए तो हम और जोर से पकड़ लेते हैं। छैनी देखकर तो हम भाग जाते हैं। हथौड़ी से तो हम बचते हैं। हम तो चाहते हैं सांत्वनाएं, सत्य नहीं।
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दरिया कहते हैं: मीठे राचैं लोग सब ? मीठी मीठा तो सभी को रुचता है। मीठा यानी सांत्वना। अच्छी-अच्छी बातें तुम्हारे अहंकार को आभूषण दें, तुम्हें सुंदर परिधान दें, तुम्हारी कुरूपता को ढांकें, तुम्हारे घावों पर फूल रख दें।
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मीठे राचैं लोग सब
मीठे उपजै रोग
लेकिन इसी सांत्वना, इसी मिठास की खोज से तुम्हारे भीतर सारे रोग पैदा हो रहे हैं।
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निरगुन कडुवा नीम सा
दरिया दुर्लभ जोग
और जो उस निर्गुण को पाना चाहते हैं उन्हें तो नीम पीने की तैयारी करनी होगी। निरगुन कडुवा नीम सा, दरिया दुर्लभ जोग।
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और इसीलिए तो बहुत कठिन है योग, बहुत कठिन है संयोग, क्योंकि परमात्मा जब आएगा तो पहले तो कड़वा ही मालूम पड़ेगा। लेकिन वही नीम की कड़वाहट तुम्हारे भीतर की सारी अशुद्धियों को बहा ले जाएगी, तुम्हें निर्मल करेगी, निर्दोष करेगी।
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सदगुरु जब मिलेगा तो खड़ग की धार की तरह मालूम होगा। उसकी तलवार तुम्हारी गर्दन पर पड़ेगी। कबीर कहते हैं–
कबिरा खड़ा बाजार में
लिए लुकाठी हाथ
जो घर बारै आपना
चले हमारे साथ
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हिम्मत होनी चाहिए घर को जला देने की। कौन सा घर? वह जो तुमने मन का घर बना लिया है–वासनाओं का, आकांक्षाओं का, अभीप्साओं का। वह जो तुमने कामनाओं के बड़े गहरे सपने बना रखै हैं, सपनों के महल सजा रखें हैं। जो उन सबको जला देने को राजी हो, उसे आज और अभी आर यहीं परमात्मा की आवाज सुनाई पड़ सकती है। उसके भीतर भी राख झड़ सकती है और अंगारा निखर सकता है।
ओशो ~ अमी झरत बिगसत कंवल
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