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*श्रद्धेय श्री @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी, @Ram Gopal Das बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ @Premsakhi Goswami*
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*४४. रस कौ अंग ७६/८०*
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राजा खुसी न बादशाह, अैसी खुसी अतीत ।
कहि जगजीवन पिवै रांमरस, सत संगति लहै सीत ॥७७॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि न तो राजा को प्रसन्न कर ना ही बादशाह को खुश कर पूर्व में कभी ऐसी खुशी मिली है जो सत्संग में राम स्मरण से मिलती है ।
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मरै पै माया न तजै, कोटि करै जे कोइ ।
कहि जगजीवन रांमरस, पिवै न पावन होइ ॥७८॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जीव मरनेवाले होते हैं फिर भी माया को नहीं छोड़ते चाहे करोड़ो यत्न कर लो वे रामस्मरण रुपी रस पीकर पवित्र नहीं होते हैं ।
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कोदों१ बेद पुराण मत, अनभै संस्क्रित२ भात ।
कहि जगजीवन संहसक्रित प्राक्रित, रांम अरथ रस बात ॥७९॥
(१. कोदों=एक निकृष्ट अन्न) {२. संस्क्रित भात=सिद्ध(पका हुआ) चावल}
संत जगजीवन जी कहते हैं कि वेद पुराणों के मत तो कोदों भात की भांति हैं । और अनुभव से उपजा ग्यान संस्कृत की भांति हैं संत कहते हैं कि चाहे संस्कृत हो या प्राकृत भाषा राम शब्द का अर्थ एक ही है ।
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दरसन देख्यां मन खुसी, जिस दरसन मंहि जीव ।
कहि जगजीवन नील टांस३ जग, भ्रमै त्यागि रस पीव ॥८०॥
(३. नील टांस=नीलकण्ठ नामक पक्षी)
संत जगजीवन जी कहते हैं कि दर्शन से मन प्रसन्न होता है । जिसके दर्शन के लिये मन में उत्कंठा होती है । जन श्रुति के अनुसार नीलकंठ के दर्शन होने से लोग प्रभु दर्शन का भ्रम पालते हैं ।
(क्रमशः)
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