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*ज्यों यहु समझै त्यों कहो, यहु जीव अज्ञानी ।*
*जेती बाबा तैं कही, इन एक न मानी ॥*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*गोरक्षनाथजी*
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*छप्पय-*
*संसार अब्धि१ निस्तार ने, कर्णधार गोरख जती ।*
*भूप भरतरी आदि, कोटि तेतीस उधारा ।*
*शब्द श्रवण जा धर्यो, प्रजा का अन्त न पारा ॥*
*परमारथ के काज, आप ग्यारह बर बीका ।*
*सिद्ध किये पाषाण, तीर गोदार२ नदी का ॥*
*नाद बजायो विदर्भपुर, परचा दीन्हा बरकती ।*
*संसार अब्धि निस्तार ने, कर्णधार गोरख जती ॥३१२॥*
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संसार समुद्र१ से पार करने के लिये गोरक्षनाथजी केवट रूप हुये हैं । आपने राजा भर्तृहरि आदि तैंतीस कोटि(प्रकार के) राजाओं का उद्धार किया था । जिसके भी कानों में आपका मूल मंत्र रूप शब्द पड़ गया, उसका तो उद्धार हो ही गया । इस प्रकार प्रजाजनों की संख्या करके उनका अंत लेना चाहें तब तो उनका पार पा नहीं सकते ।
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परमार्थ के लिये आप ग्यारह बार बिके थे यह जनश्रुति तो अति प्रसिद्ध है । गोदावरी२ नदी के तट पर आपने सिद्धों को पत्थर बना दिया था । नासिक का कुंभ मेला था । एक दिन गोरक्षनाथजी गुरुजी की धूणी वा रसोई के लिये लकड़ियाँ लाने वन को जा रहे थे । मार्ग में एक मतीरों(वर्षाती तरबूजों) की गाड़ी लेकर एक मनुष्य आ रहा था ।
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गाड़ी वाले से गोरक्षनाथजी ने पूछा, तरबूजे कहाँ ले जा रहे हैं ? उसने कहा- "नाथों के अखाड़े में ।" गोरक्षनाथजी ने कहा- मैं भी नाथ ही हूँ, मुझे तो यहाँ दे जा । उसने कहा- अखाड़े के महन्तजी ही देंगे । गोरक्षनाथजी बोले- "मैं तो वन को जा रहा हूँ, क्या पता कितनी देर में आऊँगा । मुझे भूख प्यास भी लगी है । अतः ऐसी स्थिति में मुझे यहाँ ही दे जाय तो अच्छा है ।" उसने कहा- "अच्छा ले लो ।"
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गोरक्षनाथजी ने एक मतीरे में से आधा ले लिया और आधा गाड़ी में रखकर कहा- "आधा आधा सबके आ जायगा ।" मतीरों की गाड़ी नाथों के अखाड़े में पहुँची । महन्तजी को गाड़ी वाले ने कहा । महन्तजी ने नाथों को कहा- सब मिलकर मतीरे उतार लो भक्त को कष्ट नहीं होना चाहिये ।
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दश बारह नाथ मिलकर उतारने लगे तो एक मतीरा आधा देखकर पूछा, यह आधा कैसे है ? गाड़ी वाले ने कहा- "आधा मार्ग में गोरक्षनाथ ने ले लिया है और यह भी कहा है कि आधा आधा सबके आ जायगा ।" यह सुनकर वे नाथ गोरक्षनाथजी पर कुपित होकर बोले- "गोरक्षनाथ ने अखाड़े की वस्तु को बीच में ही जूठा किया है और सिद्धि का ढोंग भी हमको दिखाने लगा है । अतः आज उन दोनों गुरु चेलों को दंड मिलना चाहिये । उन लोगों ने सबको उभार कर सबकी सभा की ।
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सभा में मत्स्येन्द्रनाथजी और गोरक्षनाथजी को बुलाया और कहा- गोरक्षनाथ ने मार्ग में अखाड़े की वस्तु को जूठी की है । अतः इन दोनों के शिर पर दो दो मन के पत्थर रख कर इनको धूप में खड़े कर दो और दोनों हाथ पीछे करके बाँध दो । जिससे फिर ऐसी चेष्टा नहीं कर सकेंगे । बुद्धिमान् नाथ संतों ने ऐसा करने से रोका किन्तु बहुमत भेषधारियों का था ।
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संत स्वभाव के तो कम थे, नहीं माना । वैसा ही किया । मध्याह्न की धूप में दोनों गुरु चेलों की चोटी का पसीना एड़ी पर आ रहा था । यह देख कर अच्छे अच्छे सभी संत मुख पर अंगुलियाँ रख कर खड़े हो गये, किन्तु दुर्जन देख कर हँस रहे थे । गोरक्षनाथजी ने देखा अच्छे अच्छे संत सब खड़े हुये मौन होकर व्यथित हो रहे हैं । और ये दुर्जन लोग हँस रहे हैं ।
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इनसे संसार की हानि ही है, लाभ कुछ भी नहीं है । अतः इन जड़ प्राणियों को जड़ता ही प्राप्त होनी चाहिये । यह सोच कर गोरक्षनाथजी ने कहा- "खड़े खड़े सिद्ध और बैठे बैठे सब पत्थर हो जाँयें ।" बस बैठे हुए सब पत्थर हो गये । किन्तु जो संत खड़े थे उन्होंने गोरक्षनाथजी को कहा- "यद्यपि ये लोग दंड के पात्र थे, फिर भी आप तो इन पर दया ही करो । ये पत्थर ही रहें यह तो ठीक नहीं है ।"
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गोरक्षनाथजी ने कहा-" आप लोग कहते हैं तो नासिक के प्रति कुंभ मेले में, इनमें से दो मनुष्य हो जाया करेंगे । वैसा ही होता है । सुनते हैं एक कुंभ मेले के समय तेली की लाठ पर रखे हुये दो बड़े बड़े पत्थर रात्रि को उठ गये थे । उनका कुछ भी पता नहीं लगा था । उक्त प्रकार गोदावरी२ तट पर अपने को सिद्ध मानने वाले नाथों को आपने पत्थर बनाया था ।
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विदर्भ देश की राजधानी के पुर में नाद बजाने की कथा, जालन्धरनाथजी की कथा में लिख आये हैं । (पीछे ३११ छप्पय की टीका में है, वहाँ देखिये) आपने बड़ी उदारता के साथ दुर्जनों को दंड देने के लिये और साधकों के उद्धार के लिये अनेक परचा(चमत्कार) दिये हैं अर्थात् दिखाये हैं, वे प्रसिद्ध ही हैं ॥३१२॥
(क्रमशः)
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