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*अपने अमलों छूटिये, काहू के नाहीं ।*
*सोई पीड़ पुकार सी, जा दूखै माहीं ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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पहला प्रश्न : आपको देख कर मेरे मन में भाव उठता है कि मैं भी आप जैसी ऊंचाई को कभी छुऊं। क्या यह भी तुलना है ? हीनता की ग्रंथि का परिणाम है ? दूसरे जैसे होने की आकांक्षा हीनता से ही जन्म पाती है; अपने जैसे होने की आकांक्षा आत्म-गरिमा से पैदा होती है। दूसरे जैसे तुम होना भी चाहो तो हो न सकोगे। कोई उपाय नहीं है।
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उस चेष्टा में तुम नष्ट ही होओगे। और जितने तुम नष्ट होओगे उतनी ही हीनता भरती जाएगी। जितनी हीनता होगी उतना तुम और दूसरे जैसे होना चाहोगे। एक दुष्टचक्र में फंस जाओगे। दूसरे को प्रेम करो, श्रद्धा करो, सम्मान करो; लेकिन होना सदा अपने ही जैसे चाहो। क्योंकि अन्यथा कोई गति नहीं है। तुम जैसा न कभी कोई हुआ है, न कभी कोई होगा। तुम बेजोड़ हो। और जब तक तुम अपने भीतर छिपे बीज को ही वृक्ष न बना लोगे तब तक कोई संतृप्ति नहीं होगी।
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तुम्हारी नियति पूरी होनी चाहिए। तुम मेरे जैसे होने को पैदा नहीं हुए हो। तुम किसी दूसरे जैसे होने को पैदा नहीं हुए हो। तुम तो बस तुम ही होने को पैदा हुए हो। बहुत से आकर्षण आएंगे जीवन में, लेकिन उन आकर्षणों को समझना, सीखना, लेकिन उन जैसे होने की कोशिश मत करना। उन सब आकर्षणों को, श्रद्धाओं को, प्रेमों को आत्मसात कर लेना, लेकिन बनना तो तुम तुम जैसे ही।
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रिंझाई का गुरु मर गया था तो लोगों में बड़ी चर्चा थी। गुरु रिंझाई को उत्तराधिकारी बना गया था, और रिंझाई गुरु जैसा बिलकुल नहीं था। एक दिन लोग इकट्ठे हुए, और उन्होंने कहा कि तुम तो अपने गुरु जैसे बिलकुल ही नहीं हो। न तुम्हारा व्यवहार वैसा है, न तुम्हारा आचार वैसा है, तो तुम कैसे उत्तराधिकारी हो ? किस आधार पर तुम्हें गुरु ने उत्तराधिकार दिया, यह हमारी समझ के बाहर है।
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तो रिंझाई ने कहा, मेरे गुरु भी उनके गुरु जैसे नहीं थे और मैं भी उन जैसा नहीं हूं। यही मेरे शिष्यत्व का अधिकार है। न मेरे गुरु किसी जैसे थे और न मैं अपने गुरु जैसा हूं। यही मेरे और मेरे गुरु में समानता है। यहीं से हम जुड़े हैं। इसलिए अपने जैसे शिष्यों को तो उन्होंने चुना नहीं; मुझे चुना है।
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क्योंकि उनके जैसे जो शिष्य हो गए थे वे तो नकली हो गए, वे कार्बन कापी हो गए। उनकी प्रामाणिकता खो गई। उनकी अपनी कोई आत्मा न रही। वे उधार हो गए। उनका जीवन बाहर से नियंत्रित हो गया। किसी दूसरे की प्रतिमा के अनुसार उन्होंने अपना आयोजन कर लिया। उनका जीवन भीतर से नहीं फूटा; उन्होंने जीवन को बाहर से सीख लिया। वह अभिनय है; वह जीवन की वास्तविक खिलावट नहीं है।
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आत्मा भीतर से बाहर की तरफ खुलती है; अनुकरण बाहर से भीतर की तरफ जाता है। अनुकरण तुम्हें नकली बना देगा। इसलिए बड़ी नाजुक बात है। सब सीखना, नकल मत सीखना। हालांकि नकल सरल है, और सब कठिन है। नकल बिलकुल आसान है; छोटे बच्चे कर लेते हैं; बंदर कर लेते हैं। आदमी की कोई गरिमा नहीं है नकलची होने में कोई बड़ा गौरव नहीं है। सरल है इसलिए प्रलोभन है।
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तुम ठीक मेरे जैसे उठ-बैठ सकते हो। मेरे जैसा भोजन कर सकते हो। मेरी जैसी बात कर सकते हो। उससे क्या होगा ? उससे तुम किसी ऊंचाई को न पहुंच जाओगे। बल्कि जिस ऊंचाई पर तुम पहुंचने को पैदा हुए थे, उससे वंचित हो जाओगे। नाजुक है बात, क्योंकि जो भी हमें प्रीतिकर लगते हैं, मन कहता है उन्हीं जैसे हो जाएं। इस प्रलोभन से बच जाना सबसे बड़ा काम है साधक के लिए।
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गुरु से भी सावधान होना जरूरी है। कहीं ऐसा न हो कि तुम उसके प्रभाव में इतने प्रभावित हो जाओ कि तुम अपनी नियति की जो गति थी उसे छोड़ दो और रास्ते से उतर जाओ। न तो मैं किसी जैसा हूं, न तुम्हें मेरे जैसे होने की कोई जरूरत है। दूसरी बात, दूसरे जैसा होना हो तो चेष्टा करनी पड़ती है। स्वयं जैसे होने के लिए क्या चेष्टा करनी पड़ेगी ? स्वयं जैसे तो तुम हो ही।
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लेकिन तुमने कभी अपने को प्रेम नहीं किया। तुमने कभी अपनी आत्मा को कोई सम्मान भी नहीं दिया। तुमने कभी अपनी गरिमा को स्वीकार ही नहीं किया। और सब धर्म, सब संस्कृतियां, सभ्यताएं, तुम्हें आत्म-निंदा सिखाते हैं। वे कहते हैं, तुम जैसा बुरा और कौन ! साधु-संतों को सुनने जाओ, उनकी सारी चर्चा तुम्हारी निंदा से भरी है।
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तुम कीड़े-मकोड़े हो, तुम नारकीय हो। तुम में जो कुछ है सब निंदा योग्य है। तुम में ऐसा कुछ भी नहीं है जो स्वीकार के योग्य हो। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर है, तुम चारों तरफ नरक से घिरे हो। तुम्हारे तथाकथित साधु-संन्यासी सिर्फ तुम्हारी निंदा ही कर रहे हैं। और सब तरफ से तुम्हें निंदा मिलती है। धीरे-धीरे तुम आत्मनिंदा से भर जाते हो। फिर तुम किसी और जैसे होना चाहते हो।
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यह एक गहरा षडयंत्र है। जब तक तुम्हें तुम्हारी निंदा से न भरा जाए तब तक कोई भी व्यक्ति तुम्हारा अगुआ, नेता, गुरु न बन पाएगा। तो जिनको अगुआ, नेता, गुरु बनना है, वे पहले तुम्हारी ही निंदा करेंगे। वे पहले तुम्हें डगमगा देंगे; वे पहले तुम्हें हिला देंगे; तुम्हारे पैरों के नीचे की जमीन खींच लेंगे। जब तुम बिलकुल कंप जाओगे, डरने लगोगे, घबरा जाओगे, अपने चारों तरफ नरक ही नरक दिखाई पड़ने लगेगा, तब तुम किसी के पैर पकड़ लोगे।
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इसी तरह तो इतने गुरु फ़लते-फुलते हैं। हजारों गुरुओं में कभी कोई एक गुरु होता है, नौ सौ निन्यानबे तो केवल तुम्हारी आत्मनिंदा से जीते हैं। तुमको भयभीत कर देते हैं, तुम्हें अपराध-भाव से भर दिया, अब तुम्हें पूछना ही पड़ेगा-- मार्ग क्या है? अब तुम्हें नकल करनी ही पड़ेगी। क्योंकि तुम गलत हो और वह सही है।
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मेरे पास तुम हो। तो मैं तुमसे यहां यह कहने को नहीं हूं कि मैं सही हूं और तुम गलत हो। मैं तुम्हें जरा भी तुम्हारे होने से नहीं डिगाना चाहता। मैं तो चाहता हूं कि तुम अपने होने में पूरी तरह से थिर हो जाओ। तुम्हारे भीतर का दीया जरा भी न कंपे; कितने ही बड़े झंझावात उठें, तुम अकंप रह सको। मैं तुम्हें तुम्हारे होने को मजबूत करना चाहता हूं। मैं तुम्हें और कोई अनुशासन नहीं देता, एक ही अनुशासन देता हूं कि तुम सदा सचेत रहना और अपने जैसे होने में लगे रहना।
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जो तुम्हारी निंदा करे, उसे तुम शत्रु समझना। वह शत्रु है, क्योंकि वह हीनता पैदा करेगा। और हीनता एक दफा पैदा हो गई कि तुम किसी का अनुसरण करोगे--कोई आदर्श, कोई प्रतिमा--किसी के पीछे चलने लगोगे। यह सीधा सा गणित है। पहले आदमी को डरा दो। डर जाए तो वह मार्ग पूछता है। पहले उसे घबड़ा दो।
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जो भी तुम्हारी निंदा करे, जो भी तुम से चाहे कि तुम किसी और जैसे हो जाओ, वहां से हट जाना। वह तुम्हारी हत्या करने को तत्पर है। हत्या बड़ी बारीक है, सूक्ष्म है। खून भी न बहेगा, और तुम कट जाओगे। कहीं आवाज भी न होगी, और तुम जन्मों-जन्मों के लिए भटक जाओगे।
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तुम स्वयं परमात्मा की कृति हो। तुम्हें सुधारने का कोई भी उपाय नहीं है। कोई जरूरत भी नहीं है। तुम्हें सुधारने वालों ने ही तुम्हें इस दुर्दशा में पहुंचा दिया है। तुम सिर्फ अपने प्रति जागो। तुम अपने भीतर उसे खोज लो जो परमात्मा का दान है, प्रसाद है। तुम अपने खजाने से थोड़े परिचित हो जाओ।
ओशो; ताओ उपनिषद
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