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*महा अपराधी एक मैं, सारे इहि संसार ।*
*अवगुण मेरे अति घणे, अन्त न आवैं पार ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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फ्रेडरिक महान ने अपनी डायरी में एक संस्मरण लिखा है। लिखा है उसने कि मैं अपनी राजधानी के बड़े कारागृह में गया। सम्राट स्वयं आ रहा है, स्वभावतः हर आदमी ने उसके पैर पकड़े, हाथ जोड़े और कहा कि 'अपराध हमने बिल्कुल नहीं किया है। यह तो कुछ शरारती लोगों ने हमें फंसा दिया।'
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किसी ने कहा, 'हम तो होश में ही न थे। हमसे करवा लिया किन्ही षड्यंत्रकारियों ने।' किन्हीं ने कहा कि 'सिर्फ कानून.... । हम गरीब थे, हम बचा न सके अपने को; बड़ा वकील न कर सके, इसलिए हम फंस गए हैं। अमीर आदमी थे हमारे खिलाफ, वे तो बच गए, और हम सजा काट रहे हैं।'
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पूरे जेल में सैकड़ों अपराधियों के पास फ्रेडरिक गया। हरेक ने कहा उससे ज्यादा निर्दोष आदमी खोजना मुश्किल है ! अंततः सिर्फ एक आदमी सर झुकाए बैठा था। फ्रेडरिक ने कहा, 'तुम्हें कुछ नहीं कहना है ?' उस आदमी ने कहा कि 'माफ करो। मैं बहुत अपराधी आदमी हूं। जो भी मैंने किया है, सज़ा मुझे उससे कम मिली है।'
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फ्रेडरिक ने अपने जेलर से कहा, 'इस आदमी को इसी वक़्त जेल से मुक्त कर दो; कहीं ऐसा न हो कि बाकी निर्दोष और भले लोग इसके साथ रहकर बिगड़ जायें ! इसे फौरन जेल के बाहर कर दो। कहीं ऐसा न हो कि बाकी इनोसेंट लोग.... क्योंकि बाकी पूरा जेलखाना तो निर्दोष लोगों से भरा हुआ है, वे कहीं इसके साथ रहकर बिगड़ न जाएं। तो इसे इसी वक़्त मुक्त कर दो।'
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वह आदमी बहुत हैरान हुआ। उसने कहा कि 'आप क्या कर हैं ? मैं अपराधी हूं।' फ्रेडरिक महान ने कहा कि 'कोई आदमी अपने अपराध को स्वीकार कर ले, इससे बड़ी निर्दोषता, इससे बड़ी इनोसेंस और कोई भी नहीं है। तुम बाहर आओ।'
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परमात्मा के जगत में भी केवल वे ही लोग संसार के बाहर जा पाते हैं, जो अपनी वास्तविक स्थिति को स्वीकार करने में समर्थ हैं। अपने को जो धोखा देगा - देता रहे…। परमात्मा को धोखा नहीं दिया जा सकता है।
ओशो 🌺🌹🙏🏻
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