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*जहँ विरहा तहँ और क्या,*
*सुधि, बुधि नाठे ज्ञान ।*
*लोक वेद मारग तजे, दादू एकै ध्यान ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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अहोभाव
आग भयंकर है विरह की। थोड़े से ही हिम्मतवर लोग गुजर पाते हैं, अन्यथा लौट जाते हैं। धैर्य चाहिए, प्रतीक्षा चाहिए। प्रतीक्षा ही प्रार्थना का मूल है; उदगम है। और जो प्रतीक्षा नहीं कर सकता, वह प्रार्थना भी नहीं कर सकता। सम्हालना होगा अपने को। और थोड़े दिन बांधना होगा अपने को कि लौट न पड़े कि भाग न आए, कि पीठ न दिखा दे।
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बिरहिन पिउ के कारने
ढूंढन बनखंड जाए
निस बीती, पिउ ना मिला
दरद रही लिपटाय
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बड़ी बुरी दिशा हो जाती है विरही की। खोजता फिरता है जंगल-जंगल। निस बीती, पिउ ना मिला। और रात बीत चली और प्यारा मिला नहीं। फिर कोई और उपाय न देखकर, दर्द से ही लिपटकर सो जाती है दर्द रही लिपटाय! विरह के पास और है भी क्या ? परमात्मा पता नहीं कब मिलेगा !
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जगा गया एक अभीप्सा को। अब अभीप्सा ही है जिसको छाती से लगाकर भक्त जीता है। यही उसकी परीक्षा है। इस परीक्षा से जो नहीं उतरता वह कभी उस दूसरे किनारे तक न पहुंचा है न पहुंच सकता है। भक्त बहुत भावों से गुजरता है।
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स्वभावतः कई बार लगता है यह कैसा दुर्दिन आ गया ! यह मैं किस झंझट में पड़ गया ! सब ठीक-ठाक चलता था, यह किन आंसुओं से जीवन घिर गया। अब भला-चंगा था, यह किस रुदन ने पकड़ लिया कि रुकता ही नहीं ! हृदय है कि उंडेला ही जाता है और रोआं-रोआं है कि कंप रहा है।
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और पता नहीं परमात्मा है भी या नहीं। पता नहीं मैं किसी कल्पना के जाल में तो नहीं उलझ गया हूं। भारी शंकाएं उठती हैं, कुशंकाएं उठती हैं। भक्त कभी नाराज भी हो जाता है परमात्मा पर, कि यह भी दिया तो क्या दिया! मांगे थे फूल, कांटे दिए। मांगी थी सुबह, सांझ दी। मांगा था अमृत, जहर दे दिया।
ओशो ~ अमी झरत बिगसत कंवल
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