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*विरह अग्नि तन जालिये, ज्ञान अग्नि दौं लाइ ।*
*दादू नखशिख परजलै, तब राम बुझावै आइ ॥*
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*साभार ~ @Subhash Jain*
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#शंकराचार्य ने दस वर्ष की उम्र में जो वचन बोले, वे लोग सौ वर्ष की उम्र में नहीं बोल पाते। शंकराचार्य ने दस वर्ष की उम्र में उपनिषदों की जो परिभाषा की, वह सौ वर्ष का आदमी भी नहीं कर पाता। यह तो त्वरा की बात है, तीव्रता की बात है, सघनता की बात है।
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अपने प्राण को पूरा जगाओ और अपनी पूरी शक्ति को उंडेल दो, तो तुम पाओगे इसी क्षण वानप्रस्थ हो गया, इसी क्षण संन्यस्त हो गया। लेकिन अगर तुम भागते रहे और बचते रहे और टालते रहे और स्थगित करते रहे कि कल देख लेंगे–आज सिनेमा देख लें, कल मंदिर हो आएंगे। अगर स्थगित ही करना हो तो सिनेमा को कर दो, बुढ़ापे में देख लेना। सिनेमा ही है, बुढ़ापे में देख लेना।
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लेकिन परमात्मा को तुम बुढ़ापे के लिए स्थगित कर रहे हो। जवानी तुम संसार को देते हो, बुढ़ापा परमात्मा को ! तुम्हारे देने से पता चलता है कि मूल्य किसका है। जवानी तुम व्यर्थ को देते हो और बुढ़ापा परमात्मा को! जब शक्ति होती है तब तुम गलत करते हो और जब शक्ति नहीं होती तब तुम कहते हो कि अच्छा करेंगे।
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जब करने को ही कुछ नहीं बचता, तब तुम कहते हो कि अच्छा करेंगे। जब मरने लगते हो, तब तुम कहते हो समर्पण। और जब तक तुम पकड़ सकते थे, तब तक तुमने कभी समर्पण की बात न सोची। तुम किसे धोखा दे रहे हो ? इसलिए तो शंकर कहते हैं, आंख के अंधे। तुम किसे धोखा दे रहे हो ?
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जब तक शक्ति है, तब तक करो स्मरण; क्योंकि स्मरण के लिए महाशक्ति की जरूरत है। उससे बड़ा कोई कृत्य नहीं है; वह तुम्हारी समग्रता को मांगता है; वह तुम्हारे रोएं-रोएं, श्वास-श्वास को मांगता है। जब तुम्हारे हाथ-पैर जीर्ण-जर्जर हो जाएंगे, लाठी टेक कर चलने लगोगे, आंख से दिखाई न पड़ेगा, तब तुम स्मरण करोगे ?
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तब तुमसे गोविन्द की आवाज भी न निकलेगी; तब तुम्हारा कंठ भी अवरुद्ध हो गया होगा; तब तुम कहोगे भी मुर्दा-मुर्दा; वह परमात्मा तक पहुंचेगा ? त्वरा चाहिए; बाढ़ चाहिए; जीवन की पूरी ऊर्जा को दांव पर लगा देने की हिम्मत, तैयारी चाहिए। वह आज ही हो सकता है। जिस दिन तुम्हें समझ आ जाए, उसी दिन वानप्रस्थ।
ओशो; भज गोविंदम् मूढ़मते
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