शुक्रवार, 10 जनवरी 2025

*भ्रमविध्वंश ॥*

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*बखनां~वाणी, संपादक : वैद्य भजनदास स्वामी*
*टीकाकार~ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल*
*साभार विद्युत संस्करण~महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी*
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*माया का ठाकुर किया, माया की महामाइ ।*
*ऐसे देव अनंत कर, सब जग पूजन जाइ ॥*
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*भ्रमविध्वंश ॥*
दुनिया झाँवर झोलि अलूँझै, ताथैं साहिब राम न सूझै ॥टेक॥
बीझासणि कौ झालरि पहर्यौ, मूरिख राति जगाई ।
दोस बराज कछू नहिं कीनौं, बेचि काल मैं खाई ॥
तेल बाकुला भैरौं चाढै, बाकर को कान काटै ।
पूजा चढै सु भोपी लेगी, रहती कूकर चाटै ॥
सिर पर मेल्हि अगीठी बलती, देवी कै मँढि चाली ।
खानि पानि सब सौं मिलि बैठी, नरक कुंड मैं घाली ॥
दई देवता का जे सेवग, दिया नरिक ले गाढै ।
संकट चौथि सँकड़ा की राणी, तो जाणौं जे काढै ॥
कीया बरत अहोई आठै, देवी दावणि बाधा ।
ह्वैसी सहीं सील का बाहण, के गदही के गाधा ॥
भोपी हुई उबासी मारै, दोस दुनी कौं करती ।
पकड़ि नाक काट्यौ कुटणी कौ, सास न काढै डरती ॥
के गूगा का के गुसाँई का, के काँवड का ह्वैसी ।
बेस्वाँ के घरि बालक जायौ, पिता कवन सौं कहसी ॥
यक की नहीं घणाँ की हूई, दीसैं बहु भरतारी ।
बषनां कहै कौंण संगि बलसी, घणपुरिषाँ की नारी ॥३२॥
बषनांजी इस पद में नाना भ्रमों का वर्णन करते हैं जो सांसारिक लोगों के मनों में अपनी जड़ जमाकर बैठे हुए हैं । उन्होंने इन भ्रमों को “झाँवर झोलि” कहा है जिसका तात्पर्य अन्यतत्त्व में अन्यतत्त्व की प्रतीति है । रस्सी को रस्सी न जानकर सर्प जान लेना, शुक्ति को शुक्ति न जानकर रजत रूप में जानना इसके उदाहरण हैं । संसारी जन सांसारिक विषय-भोगों, जो शाश्वत नहीं है को चिर सुखद जान व मानकर उनके संपादन व भोग में ही अपने अमूल्य मनुष्य जन्म को खो देते हैं जबकि चिरशाश्वत व अखंडानंद स्वरूप परब्रह्म-परमात्मा की ओर जरा भी ध्यान नहीं देते हैं ॥
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दुनिया भ्रम में फँस जाती है । इसलिये उसे रामजी नहीं सूझते हैं । मूर्ख = भ्रमित लोग बीजासण देवी की आकृति चांदी में उकरवाकर उसका झालरा बनाकर गले में इस भावना से पहनते हैं कि देवी हमारी रक्षा करेगी तथा कुछ भी अनिष्ट नहीं होने देगी । इसके अतिरिक्त वे उसके प्रसन्नार्थ रात्रिजागरण भी करते हैं किन्तु अकाल पड़ जाने व भोजन के भी लाले पड़ जाने पर उस झालरे को बेचकर उदरपूर्ति की व्यवस्था कर लेते हैं । उस स्थिति में बीजासण देवी कुपित(नाराज) होकर कुछ भी दोष नहीं करती । इसका तात्पर्य यह हुआ कि देवी का झालरा पहनना, उसके निमित्त रात्रिजागरण करना व्यर्थ है क्योंकि इसके कारण न तो वह प्रसन्न होती है और न अप्रसन्न ही होती है ।
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भैरव के प्रसन्नार्थ संसारी लोग तैल तथा बाकला = भीगे हुए अन्न चढ़ाते हैं । बकरे की बलि कान काटकर करते हैं । (जो लोग निरामिष होते हैं वे देवी-भैरवादि के निमित्त बकरे को न काटकर उसके कान मात्र को काटकर देवी के चढ़ाते हैं तथा बकरे को स्वेच्छया विचरण करने को स्वतंत्र कर देते हैं ।) भैरव के सामने जो भेंट आदि चढ़ती है उसे तो भोपी = पुजारिन ले जाती है जबकि शेष बचे तैलादि को कुत्ते चाट जाते हैं । बताइये ! समर्पित उक्त सामग्री का कौनसा अंश भैरव को मिला । कुछ नहीं । वस्तुतः भोपे भोपियों ने अपनी उदरपूर्ति हेतु ही इस भ्रमजाल को फैला रखा है । न तो भैरव भेंटादि चढ़ाने से प्रसन्न होता है और न न चढ़ाने से अप्रसन्न ही होता है ।
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कुछ औरतें शिर पर जलती अंगीठी रखकर देवी के मन्दिर में जाती हैं । वहाँ माँसादि रांधती तथा सबके साथ मिल बैठकर-खाती-पीती हैं और जीवहिंसा के फलस्वरूप उत्पन्न पापों के प्रभाव से अंत में नरकों में जाने का रास्ता तैयार कर लेती हैं । देवी-देवताओं के सेवकों को मोक्ष न मिलकर अंत में भंयकर नरकों की कठिरतम यंत्रणाएँ ही मिलती हैं । “अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् । देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यांति मामपि ॥” गीता ७/२०-२३ तक ॥
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बषनांजी दृढ़तापूर्वक कहते हैं, यदि संकष्टचतुर्थी (माघ कृष्णा चतुर्थी की अधिष्ठातृ देवी संकड़ा की राणी (शंकर की पत्नी) अपने उक्त सेवकों को नरकों में न जाने देकर उनका उद्धार कर दे तो मैं जानूँ कि वास्तव में वह कुछ कर सकने में समर्थ है ।
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स्त्रियाँ अहोई अष्टमी = शीतला-अष्टमी का व्रत करती हैं । उसके मंदिर में जाकर मनोकामना पूर्ति हेतु दावणि = धागा बांधती है (अनेकों स्थानों पर मनोकामना पूर्ति हेतु धागा बांधने की परम्परा है । रामनिवासधाम शाहपुरा में भी वह रीति प्रचलित है) किन्तु ऐसे देवी के सेवक-सेविकाएँ शीतलादेवी के वाहन या तो गधे या गधी ही बनते हैं । उनको पुनर्जन्म से छुटकारा नहीं मिलता ।
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कुछ स्त्रियाँ भैरव आदि की सेविकाएँ बनकर भोपी बन जाती हैं और अपने शरीर में भैरवादि की छाया आने का प्रचार कर नाना प्रकार के ढोंग करती है(उबासी लेती हैं ।) संसारियों द्वारा पूछे जाने पर भैरवादि का दोष बताती है । उनके प्रसन्नार्थ रात्रिजागरण, बलि, भोग आदि करने का उपाय बताती है किन्तु जब उसी कुटणि = ढोंगी भोपी की नाक काट ली जाती है तब डर के कारण उफ भी नहीं करती है । यदि जरासी भी ननुनच करे तो उसका प्रभाव भोली दुनिया पर से उठ जावे । इसकारण वह चुपचाप नाक कटने को सहन कर लेती है । कहने का आशय यह है की यदि उसमें भैरवादि की छाया यथार्थ में आती है तो नाक काटने वाले को वह दंड देने में समर्थ हो सके किन्तु ऐसा वह कर नहीं पाती जिससे सिद्ध होता है कि वह मात्र ढोंग करती है ।
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संसारी लोग मनोकामना पूर्ति हेतु गोगाजी चौहान के सेवक बन जाते हैं, याँ गुसाँइयों के अनुयायी बन जाते हैं अथवा काँवड़ = रामसा पीर के कामड़ बन जाते हैं किन्तु इनसे परमार्थ का साधन लेशमात्र भी नहीं सधता है । परब्रह्म परमात्मा के दरबार में इनकी स्थिति ठीक वैसी ही होती है जैसी वेश्या के घर में जन्मे बालक की होती है । क्योंकि वैश्या का एक पति नहीं होता है जिसको कि बालक पिता कह सके ।
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वैश्या एक की पत्नी न होकर अनेकों पुरुषों की स्त्री बनती है । अतः अनेकों पुरुषों की स्त्री वह वैश्या किसी के भी साथ सहगमन(जौहर) नहीं कर पाती क्योंकि आखिर वह किस-किस के साथ सहगमन करे । ऐसे ही अनेकों देवी-देवों को मनाने वाले भ्रमित चित्त वाले संसारी किस-किस देव के लोक में जाएँ । वे किसी में भी नहीं जा पाते और इस संसार में ही पुनरपि जननं पुनरपि मरणं के चक्र में पड़े रहते हैं ॥३२॥
(क्रमशः)

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